रावण की स्त्रियों के बारे क्या सोच थी वह रावण की ही थी तुलसी की नहीं
- राजकमल गोस्वामी की कलम से-
Positive India:Rajkamal Goswami:
महाभारत में कितनी बार नारी के लिए अपमान जनक शब्दों का प्रयोग हुआ है पर कोई इसके लिए महाभारत के रचयिता वेदव्यास को दोषी नहीं ठहराता । मर्चेंट ऑफ़ वेनिस के यहूदी पात्र शाइलॉक का इतना चरित्र हनन शेक्सपीयर ने किया है कि पूरे यूरोप में यहूदियों के प्रति घृणा फैल गई जिसकी परिणति उनके नरसंहार में हुई । पर शेक्सपीयर महान लेखक हैं । बस तुलसीदास पर ही सारे लांछन हैं ।
किसी कथा को महाकाव्य का रूप देने के लिए कवि को स्वयं उसके पात्रों को जीना पड़ता है तभी वह उनके साथ न्याय कर सकता है , उसे हनुमान के संवाद भी लिखने होते हैं और सीता के भी । रावण की स्त्रियों के बारे क्या सोच थी वह रावण की ही थी तुलसी की नहीं । मंदोदरी के समझाने पर रावण नारी जाति पर ज्ञान बघारता है,
नारि सुभाउ सत्य कवि कहहीं । अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया । भय अविवेक असौच अदाया ॥
अब कोई कहे कि तुलसी तो नारी विरोधी हैं । कम से कम इस स्थल पर तो नहीं हैं । लेकिन जहाँ वे मूसलाधार वृष्टि के समय नारी स्वातंत्र्य को अपनी उपमा में ले आते हैं वहाँ पर तो वे नारी स्वातंत्र्य के विरूद्ध ही खड़े दिखाई देते हैं ,
महावृष्टि चलि फूटि कियारीं । जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहिं नारी ॥
नारियाँ स्वतंत्र होकर बिगड़ जाती हैं । यद्यपि यह बात उन्होंने चार सौ वर्ष पहले कही थी जब युग ही दूसरा था लेकिन आज भी जिस तरह स्त्रियाँ कभी सूटकेस में कभी तंदूर में कभी प्लास्टिक बैग में बरामद होती रहती हैं तो तुलसी की बात ठीक लगती है ।
कभी आपने सोचा है कि स्त्री को पुरुष की बाँई ओर क्यों रखा जाता है ? और यह सभी संस्कृतियों में रखा जाता है । अंग्रेज़ बादशाह भी चलेगा तो रानी को बाँईं ओर रख कर निकलेगा । ऐसा इसलिए कि नारी की सुरक्षा करनी होती है इसके लिए अपना दाहिना हाथ मुक्त रखना होता है । हथियार भी दाहिने हाथ में ही रखा जाता है । नारियाँ चाहे जितनी बुद्धिमान और बहादुर हों पुरुष को उनकी सुरक्षा की सदा चिंता रखनी चाहिए और एकदम आज़ाद नहीं छोड़ देना चाहिए । उनके अंदर दया ममता करुणा आदि ऐसे मानवीय गुण भरे होते हैं कि कोई भी रावण भेस बदल कर उन्हें ठग सकता है और वे करुणा के वशीभूत हो लक्षमण रेखा पार कर सकती हैं ।
लेकिन तुलसीदास सर्वाधिक नारी विरोधी अरण्य कांड में उस समय दीखते हैं जब सीता वियोग में वन वन भटकते राम का हालचाल लेने नारद मुनि प्रकट होते हैं । एक मायावी स्वयंवर में नारद जी को बंदर का रूप देकर नारद मोह को भंग करने के कारण ही श्रीराम नारद का दिया शाप भुगत रहे थे । नारद पूछते हैं कि उस समय आप मेरा विवाह हो जाने देते तो क्या बिगड़ जाता ?
राम कहते हैं,
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा । भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ।
करहुँ सदा तिन्ह कर रखवारी । जिमि बालक राखइ महतारी ॥
हे मुनि मैं आपसे सरोष कहता हूँ कि जो भक्त सब कुछ छोड़ कर सिर्फ़ मेरे भरोसे रहते हैं उनकी रक्षा मैं उसी तरह करता हूँ जैसे माता अपने शिशु की करती है ।
* काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥43॥
काम, क्रोध, लोभ और मद आदि मोह (अज्ञान) की प्रबल सेना है। इनमें मायारूपिणी (माया की साक्षात् मूर्ति) स्त्री तो अत्यंत दारुण दुःख देने वाली है॥
* सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥
हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियम रूपी संपूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्म रूप होकर सर्वथा सोख लेती है।
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥
काम, क्रोध, मद और मत्सर (डाह) आदि मेंढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली एकमात्र यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं। उनको सदैव सुख देने वाली यह शरद् ऋतु है।
* धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा॥
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥
समस्त धर्म कमलों के झुंड हैं। यह नीच (विषयजन्य) सुख देने वाली स्त्री हिमऋतु होकर उन्हें जला डालती है। फिर ममतारूपी जवास का समूह (वन) स्त्री रूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा हो जाता है।
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधियारी॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥
पाप रूपी उल्लुओं के समूह के लिए यह स्त्री सुख देने वाली घोर अंधकारमयी रात्रि है। बुद्धि, बल, शील और सत्य- ये सब मछलियाँ हैं और उन (को फँसाकर नष्ट करने) के लिए स्त्री बंसी के समान है, चतुर पुरुष ऐसा कहते हैं।
दोहा :
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥
युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देने वाली और सब दुःखों की खान है, इसलिए हे मुनि! मैंने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था।
नारद वीतराग सन्यासी हैं उनकी बहुत लंबी आध्यात्मिक साधना है । भगवान उन्हें विश्वामित्र की भाँति मेनका के हाथों सौंप कर उनका अब तक किया धरा अकारथ नहीं कर सकते थे । फिर विश्वामित्र ज्ञान मार्गी थे और नारद भक्त हैं । विश्वामित्र सोच सकते हैं कि ब्रह्म कहीं भागा नहीं जा रहा है किंतु मेनका लौट गई तो फिर नहीं आने वाली है ।
यदि नारद की जगह कोई गृहस्थ होता तो भी भगवान इतनी नारी विरोधी बातें नहीं कहते , फिर उसे कर्मयोग का ही उपदेश देते अर्जुन की तरह । किन्तु नारद भक्तियोग के उच्चतम स्तर पर हैं । उनका भक्तिसूत्र भक्तों की गीता है और भक्त तो भगवान भरोसे ही रहता है । उनका विवाह कराना उनकी सारी उपलब्धियों पर पानी फेरना होता।
नारी के विषय में यह उपदेश केवल नारद के लिए है । सामान्य पाठक विशेष रूप से वामपंथी नारीवादियों के लिए यह नहीं है ।
रामकथा के आस्वादन के लिए निरंतर सत्संग होना परम आवश्यक है वरना छोटे भाई भ्रातृधर्म की शिक्षा लक्ष्मण और भरत से लेने की बजाय सुग्रीव और विभीषण से भी ले सकते हैं ।
रामकथा के तेइ अधिकारी
जिनके सतसंगति अति प्यारी
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)