Positive India:सुजीत तिवारी:
आप लुच्चा हैं ? हत्यारे हैं ? आतंकवादी हैं ? यह सवाल मुंबई पुलिस से नहीं, अर्नब से है। अर्नब को कानून का सम्मान करते हुए स्वंय को पुलिस के हवाले करना चाहिए था, भले पुलिस ने सम्मन ना किया हो! भले, गिरफ्तारी विधि अनुसार ना हुई हो। लेकिन अर्नब को पता होना चाहिए, यह लड़ाई की शुरुआत है, अंत नहीं।
अर्नब के खिलाफ “आत्महत्या के लिए उकसाने” का आरोप है। मृतक की लिखित चिट्ठी है। नामजद। किन्ही कारणों से दो साल से करवाई नहीं हुई। तो इसका मतलब यह नहीं कि कारवाई नहीं होनी चाहिए।
कुछ मित्र लिख रहे हैं, केस में एफआर यानी फाइनल रिपोर्ट लग चुकी है। अर्नब को क्लीन चिट मिल चुकी है। तो ऐसे नादान दोस्तों को कहना होगा, आपको न्यायिक प्रक्रिया और व्यवस्था की समझ बहुत कम है। नए साक्ष्य मिलने के आधार पर पुलिस या पीड़ित पक्ष किसी भी बन्द केस को “रीओपन” करवा सकती है। बाकी निर्णय, विवेचना कोर्ट का विषय है।
अब तमाम राष्ट्र्वादी कहेंगे, यह करवाई नहीं, बदले की करवाई है। निसन्देह है। सवाल तो यह भी है, दो साल से करवाई क्यों नहीं हुई ?
तो निजी तौर पर मेरा मानना है, एक पत्रकार के दायित्व बहुत बड़े होते हैं। पत्रकार का संघर्ष व्यवस्था के साथ होता है, ना कि व्यक्ति के साथ। पत्रकार का संघर्ष पुलिस की गिरफ्तारी से लेकर न्यायालय की लड़ाई तक है। एक ऐसी लड़ाई जो इस देश का एक सामान्य नागरिक हर दिन भुगतता है।
साथ ही, हर राष्ट्र्वादी को याद रखना होगा। मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने किस तरह से जांच एजंसियों का सामना किया। लाखों समर्थकों को बुलाकर हंगामा नहीं मचवाया। कैमरा लगवा कर ड्रामा नहीं क्रिएट किया।
लोकतंत्र में संविधान सम्मत सँघर्ष कहीं ज्यादा सामाजिक स्वीकृति दिलवाते हैं, बजाय की ऐसे नाटक।
साभार:सुजीत तिवारी-एफबी(ये लेखक के अपने विचार हैं)