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कोरोना काल में अपने किसी खास से दूर एक शख़्स की व्यथा

सर तुम्हारा प्यार से सहला नहीं सकता कहो।

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Positive India:Rajesh Jain Rahi:
कोरोना काल में अपने किसी खास से दूर एक शख़्स की व्यथा।

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हा मित्र ! मुझे धिक्कार है !

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तुम मुसीबत में मगर,
मैं हूँ यहाँ आराम से,
क्या कहूँ, अब गिर रहा हूँ,
मैं नजर के धाम से।
पास तेरे चाह कर भी,
आ नहीं सकता अहो,
सर तुम्हारा प्यार से,
सहला नहीं सकता कहो।
बिन लड़े ही हो गई अब हार है,
हा मित्र ! मुझे धिक्कार है !

जागकर तुमने गुजारी,
आज काली रात सारी,
पास तेरे बूढ़ी माँ है,
बाबूजी का मन है भारी।
रुक गई होगी अचानक,
छोटे भाई की किलकारी।
गर्म पानी का है काढ़ा,
दुख हुआ उतना ही गाढा।
तुम कहो खुदगर्ज मुझको,
स्वीकार है।
हा मित्र! मुझे धिक्कार है !

फेल हुआ हूँ मैं,
नई इस जाँच में,
झुलस रहा हूँ मैं,
अभागा आँच में।
काल से लड़ना सरल हो,
चाहे हिस्से में गरल हो।
रोशनी है दूर काफी,
उलझा हुआ संसार है
हा मित्र! मुझे धिक्कार है !

साँस की रफ्तार धीमी,
और हवा का अभाव है।
घर के बाहर अब दुखों का,
हो रहा है छिड़काव है।
मत कहो अब,
फिर हुआ बुखार है।
वक़्त ये बेबस, बहुत लाचार है।
हा मित्र! मुझे धिक्कार है !

लेखक:कवि राजेश जैन राही, रायपुर

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