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किशोर कुमार के जीवन का अंतिम दिन अत्यंत साधारण था!

-सशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit:
भला किसके जीवन का अंतिम दिन विशिष्ट होता है? जीवन विशिष्ट हो सकता है- मृत्यु तो साधारण ही होती है- विशिष्ट से विशिष्ट व्य​क्ति की भी। किशोर कुमार तक की!

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13 अक्तूबर, 1987… आज से ठीक 36 साल पहले। सुबह जल्दी जाग जाने वाले किशोर उस दिन थोड़ा देरी से उठे। वह उनके जीवन की अंतिम नींद थी। लम्बी नींद से पहले एक और छोटी नींद- पर रोज़ से थोड़ी लम्बी।

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उठते ही चाय बनाई। अपने लिए और भाई अनूप के लि​ए भी। पर अनूप चाय पिए बिना ही चले गए। उन्हें दूरदर्शन के धारावाहिक ‘भीम भवानी’ की शूटिंग पर जाना था। सीरियल में दादामुनि भी थे। किशोर की चाय अनछुई रह गई।

एक दिन पहले किशोर ने ‘माधुरी’ पत्रिका के सम्पादक विनोद तिवारी को फोन करके कहा था कि वे आएँ, वे उन्हें एक इंटरव्यू देंगे। सुबह 10 बजे विनोद जुहू स्थित ‘गौरी कुंज’ आन पहुँचे। खंडवा में किशोर के पैतृक घर का नाम भी ‘गौरी कुंज’ ही था। किशोर ने अपनी सुपरिचित पोशाक लुंगी-कुर्ता पहना था। तिवारी से उन्होंने कहा कि वे फिर से अभिनय करना चाहते हैं, उन्होंने मद्रास के एक प्रोड्यूसर की फिल्म के लिए रज़ामंदी भी दे दी थी। फिर निजी मामलों पर चर्चा होने लगी। किशोर ने कहा, “सब मेरे पैसों को चाहते हैं, पर मैं मरूंगा तो सब मुझे गाली देंगे कि सारा पैसा साथ ले गया, हमारे लिए कुछ न छोड़ गया!” किशोर की कंजूसी के किस्से बड़े मशहूर थे!

लेकिन मृत्यु का विचार उस साल पूरे समय किशोर के दिमाग़ में चलता रहा था। वे बहुत अंधविश्वासी थे और 8 के अंक को अशुभ समझते थे। वह उनकी उम्र का 58वां साल था और उनकी बहन की मृत्यु 58 की आयु में हो चुकी थी। किशोर कहते थे अगर मैं 1987 का साल पार कर गया तो​ फिर बहुत लम्बा जीऊँगा।

“अगर…”

विनोद तिवारी गए तो ‘चित्रलेखा’ पत्रिका के सत्यनारायण शास्त्री किशोर का इंटरव्यू करने चले आए। उन्होंने उनसे भी बातें कीं। फिर उन्होंने भोजन किया। अपने जीवन का अंतिम भोजन। खाने के बाद चाय और टोस्ट।

दोपहर के 2 बजे थे। उन्होंने एक फिल्म लगा ली- ‘रिवर ऑफ़ नो रिटर्न।’ फिल्म में मर्लिन मुनरो थीं। क्या उन्हें मर्लिन को देखकर मधुबाला की याद आई होगी?

फिल्म चल ही रही थी कि अनु मलिक का फोन आया। उन्हें अनु के संगीत निर्देशन में एक गाना गाना था। पारिश्रमिक बतौर किशोर ने उनसे 25 पेटी आम माँगे। अंतत: 15 पेटी आमों पर बात पटी। फिर वे डैनी से फोन पर बतियाने लगे।

क्रिकेट विश्वकप चल रहा था- भारत में ही। रिलायंस कप। पाकिस्तान का मैच इंग्लैंड से था। अब किशोर मैच देखने लगे।

मैच देखते-देखते अचानक उन्हें अपने कंधों में तीखा दर्द महसूस हुआ। दर्द उनके बायें हाथ की तरफ़ बढ़ रहा था। उन्होंने लीना को बताया। लीना ने कहा, दर्द तो मुझे भी कंधे में हो रहा है, शायद आज घर में जो ​फ़र्नीचर वग़ैरा खिसकाया है उस वजह से हो रहा हो।

लेकिन किशोर का दर्द लीना वाला नहीं था!

उनकी हालत तेज़ी से बिगड़ी। आँखें मुंदने लगीं, दम फूलने लगा। दो साल पहले किशोर ऐसा ही एक मज़ाक करके लीना को डरा चुके थे। लीना सोचने लगीं कि क्या वे फिर से मज़ाक कर रहे हैं? लेकिन किशोर अपने जीवन के तमाम हँसी-मज़ाक उस दोपहर तक पूरे कर चुके थे, अब कोई ठिठोली बाक़ी नहीं थी।

फ़ौरन, फ़ैमिली डॉक्टर को बुलाया गया। 5 बजकर 10 मिनट तक वो पहुँचे- लेकिन तब तक पंछी उड़ चुका था। अभी था, अभी नहीं। दीया बुझ गया, लौ चली गई। कहाँ चली गई? किसे पता?

डॉक्टर ने कहा- दिल का दौरा!

तब सोशल मीडिया तो था नहीं, धीरे-धीरे ही ख़बर फैली। पहले रेडियो, फिर टीवी पर आई- “महान पार्श्वगायक किशोर कुमार का दिल का दौरा पड़ने से निधन। वे 58 वर्ष के थे!”

अगले दिन अख़बारों ने स्मृतिलेख निकाले होंगे। श्रद्धांजलियाँ दी होंगी। दूरदर्शन पर किशोर के गीतों की माला प्रस्तुत की गई होगी। किशोर को चाहने वाले करोड़ों श्रोताओं ने शायद देर रात तक टेप-कैसेट पर उनके गाने सुने हों-

“कोई हमदम ना रहा, कोई सहारा ना रहा!”

या फिर-

“सारे हसीं नज़ारे सपनों में खो गये \ सर रख के आसमाँ पे पर्वत भी सो गये!”

किशोर कुमार आज दोपहर तक थे, अब नहीं हैं- इस बात के क्या मायने हैं- गाने सुनते-सुनते उन्होंने सोचा तो होगा।

कितने गीत, कितने स्वांग! कितनी किंवदंतियाँ, कितने स्मृतिलेख! एक देह, एक कंठ, एक चेतना में प्रतिफलित होने वाला प्रतिभा का विराट वैभव, देह और कंठ के साथ ही सिरा गया था।

किशोर कुमार की मृत्यु करोड़ों के लिए अलग-अलग थी- अपनी ज़ाती यादों के लम्बे सिलसिले के साथ- पर किशोर के लिए वह एक निजी, सघन अनुभूति ही रही होगी। चेतना का धीरे-धीरे सिमटते चले जाना, और देह का निष्प्राण छूट जाना, और देह के साथ संसार का…

लीना ने उन्हें देखा था- अपने अंतिम समय में एक वाक्य कहने के लिए छटपटाते, जिसे वो कह नहीं पाए। हज़ार गीत गाने वाला मूक होकर मरा!

“ये जीवन है इस जीवन का \ यही है- रंग रूप!”

क्या पता?

हमें कुछ भी तो पता नहीं है। हम बस कुछ धुंधले-से अनुमान ही लगा सकते हैं। हम- जिन्हें एक दिन किशोर की तरह सन्ध्या की उस खोह में प्रवेश करना है।

एक साधारण व्यक्ति की तरह- साधारण मृत्यु! मृत्यु के समक्ष सभी साधारण होते हैं! यह तो जीवन है जो विशिष्ट होता है।

जैसे यह गाने वाले किशोर कुमार का था :

“ऐसे मैं चल रहा हूँ पेड़ों की छाँव में
जैसे कोई सितारा बादल के गाँव में!”

साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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