Positive India:Kanak Tiwari:
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शेरनी की तरह दहाड़ती हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पार्टी का एक नुमाइंदा लोकसभा में महुआ मोइत्रा के नाम से निर्वाचित कराया है।
बेहद संयत, सटीक, व्याकरणसम्मत, संसूचित करते जवाबदेह अंगरेजी गद्य में महुआ ने सैद्धांतिक सवाल उठाए। तकनीक की भाषा में कहें तो उसका डेमो सत्ता पक्ष के मुंह पर दे मारा। महुआ के बेहद कुलीन और ईंट ईंट जोड़कर तराशे गए भाषण के तर्कमहल को हिन्दी में अनुवादित कर सुना जाए। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोकसभा के स्मरणीय नायक मधु लिमये का संसदीय इतिहास में पुनराविष्कार दिखा। शालीन मुद्रा में एनडीए सरकार के दो तिहाई बहुमत को पराजित नहीं लेकिन असहमत विपक्ष के रूप में महुआ ने कबूला। जैसे पोरस ने सिकंदर के सामने युद्ध में पराजय के बावजूद स्वाभिमानी सिर ऊंचा रखा।
तृणमूल सांसद ने दो टूक कहा कि दो बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को विस्फोटक मुहाने पर शातिर साजिशी सियासत द्वारा बिठा दिया गया है। यह लोकतंत्र के लिए ट्रेजडी या अशुभ संकेत हो सकता है। उन्होेंने कहा अल्पसंख्यकों के सड़कों, बाजारों पर एक उन्मादी हिंसक और खुद को वहशी सांप्रदायिकता की सांस्कृतिक उत्तराधिकारी समझते लोगों द्वारा जानवर की तरह पीट पीटकर मारा और कत्ल किया जा रहा है। यह युग इस देश के इतिहास के नए परिच्छेद के रूप में लिखा जा रहा है। उन्हें बरगलाकर हिंसक बनना सिखाया भी जा रहा है। देश कूढ़मगज, कुंद, गैरप्रगतिशील और कुंठाग्रस्त सलाहकारों के रेवड़ में फंसा दिया गया है। वहां विज्ञानसम्मतता, आधुनिक भावबोध और सभ्यतामूलक समकालीन मूल्यों की कोई जरूरत नहीं रह गई है।
सांसद मोइत्रा ने बहुत कम समय मिलने के बावजूद अपनी विज्ञान और गणित की छात्र जीवन की डिग्रियों और अनुभवों से लैस होकर देश के समाने आई मुश्किलों को सात सूत्रों में बताने की कोशिश की। यह साफ है कि अवाम को तकलीफ दे रही मुसीबतों की संख्या नहीं होती। उनका घनत्व और परिणाम होता है। भारतीय और अन्य संस्कृतियों में सात का आंकड़ा तरह तरह से रेखांकित होता रहा है। उसे भी किसी गणितीय संख्या की तरह स्थिर करने के उद्देश्य से ईजाद नहीं किया गया होगा। हिन्दू विवाह के सात फेरे हों या सात वचन। आकाश के सात तारे हों। साल के सात दिन हों। सात समंदर हों। दूसरी संस्कृति में सात पाप हों। या किलों के सात दरवाजे कहे जाते रहे हों। ये सब लोकजीवन की खोज हैं। उनमें संख्या का महत्व नहीं है। उसके पीछे दर्शाए गए हेतु का महत्व होता है। महुआ मोइत्रा के भाषण में हिन्दुस्तान के अवाम की वेदना की कहानी शब्दों के साथ साथ उनकी आवाज के उतार चढ़ाव, चेहरे पर उग रहे तेवरों के झंझावातों के साथ हिलकोले खा रही थीं। पूरे सदन में सत्ताधारी पार्टी के प्रधानमंत्री सहित नए सांसदों और पुराने दिग्गजों ने तार्किक मुकाबला करने की कोशिश तो की लेकिन जो पैनापन भारतीय जनता की तकलीफों की आह से उठता हुआ तृणमूल कांग्रेस की युवा सांसद के ऐलान में समा गया था। वह एक तरह से हिन्दुस्तानियत का यादनामा बनकर उभरा है।
लगभग कारुणिक तैश में आकर इस महिला सांसद ने कहा आज भारत में एकल तरह की राष्ट्रीयता या संस्कृति सायास फैलाई और विकसित की जा रही है। वह अपने अमल में लगभग हत्यारिणी है। लोगों को उनके घरों से निकालकर सड़कों पर कत्ल किया जा रहा है। असम का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा राष्ट्रीय नागरिकता, रजिस्टर जैसे मुद्दे की आड़ में इस देश के गरीब, मजलूम और अशिक्षित लोगों से पूछा जा रहा है। वे दस्तावेजी सबूत दें कि कब से भारत के नागरिक हैं। अपनी व्यंग्य की भृकुटि में महुआ ने चेहरे पर कसैलापन लाते हुए सरकारी बेंच की तरफ तीखा सवाल किया। इस देश में तो मंत्री तक अपनी पढ़ाई की डिग्री बताने में नाकाबिल रहे हैं। 2014 से 2019 के बीच देश में मानव अधिकारों का उल्लंघन तो कम से कम दस गुना बढ़ गया है। यह संसद इस बात का घमंड नहीं करे कि सरकार के पास जरूरत से ज्यादा बहुमत है। उस बहुमत का स्वीकार तो करना पड़ेगा लेकिन उससे कमतर संख्या के विपक्ष को ज्यादा जवाबदारी के साथ जम्हूरियत की हिफाजत करनी होगी। आंकड़ों में यदि ज्यादा अंतर नहीं होता तो विपक्षी सरकार के ऊपर आवश्यक होने पर वैचारिक नियंत्रण तो कर सकता था।
उनका यह भी कहना था कि सत्ताधारी पार्टी को वहम है। भले ही वह इसका प्रचार करती रहे कि अच्छे दिन आ गए हैं या और भी आने वाले हैं। लेकिन हकीकत यह है कि लगातार और बार बार झूठ बोलने से कोई बात लोगों को सच की तरह लगने लगती है और वे इस हिमाकत का शिकार हो जाते हैं। धर्म और राजनीति का इस कदर घालमेल कर दिया गया है कि दोनों अशुद्ध हो गए हैं। यह सब सायास और जतन के साथ किया जा रहा है। अब इस देश की एकता के लिए न तो कोई इकलौता नारा है या कोई इकलौता प्रतीक। महुआ मोइत्रा के इस कथन की अनुगूंज में हिन्दुस्तान के इतिहास को ‘इंकलाब जिन्दाबाद‘, ‘वंदे मातरम्‘, ‘अंगरेजों भारत छोड़ो‘, ‘आराम हराम है‘, ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है‘, ‘जयहिन्द‘ वगैरह की याद तो संसद सदस्यों के दिमागों के जरिए आई होगी।
शुरुआत में ही अपने भाषण के संयत आचरण के लिए भी महुआ ने बहुत अदब और सम्मान के साथ देश के महान नेता मौलाना आजाद की याद की और उनके कहे हुए उद्धरण का पाठ किया। यह भी बताया कि संसद में प्रवेश करने के पहले मौलाना आजाद की प्रतिमा देश को उसकी बहुलवादी संस्कृति और सभी वैश्विक सभ्यताओं के आपसी सहकार की भी याद दिलाती रहती है। वही भारतीय सोच का प्रतिनिधि अक्स है। उसकी अनदेखी किसी भी कीमत पर संविधान निर्माताओं की उत्तराधिकारी पीढ़ी द्वारा लोकसभा में कैसे की जा सकती है। सच है, लोगों को भले अन्यथा समझाया जाता हो लेकिन 70 बरस पुराना लोकतंत्र और संविधान कहीं न कहीं दरक तो जरूर रहे हैं। उनके भाषण में एक देशभक्त की पीड़ा एक बुद्धिजीवी के कथन की भविष्यमूलकता और एक आम नागरिक से सरोकार रखने की सैद्धांतिक और प्रतिनिधिक कशिश ने एक साथ तृणमूल कांग्रेस की इस युवा सांसद के भाषण को संसद के अभिलेखागार में अपनी सम्मानित जगह पर रखने का वचन तो वक्त ने दिया होगा।
साभार:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)