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वह रेडियो , वह काव्य-पाठ अब अगर मिल भी जाए तो क्या है !

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
प्रधान मंत्री चाहे जितने रेडियो केंद्रों का उदघाटन करें , करते ही रहते हैं जब-तब। पर घरों से तो टी वी ने रेडियो को विदा ही कर दिया है। बाज़ार में भी रेडियो ख़रीदने निकलिए तो छक्के छूट जाएंगे। लेकिन मिलेगा नहीं। घर में रख कर बजाने वाला रेडियो। भूले-भटके कहीं कोई छोटा-मोटा रेडियो मिल भी जाए तो सौभाग्य समझिए। हां , पुराना रेडियो ख़राब हो गया हो तो उसे बनवाना तो भूल ही जाइए। मेरे पास कई ख़राब रेडियो हैं। बहुत खोजा पर कहीं कोई मेकेनिक नहीं मिला , कहीं। ऐसे में रेडियो केंद्र खोलने और रेडियो पर मन की बात कहने का प्रधान मंत्री का मसला बिलकुल अलहदा है। मन की बात भी रेडियो की जगह टी वी पर ही लोग सुनते हैं। यह तो हुई एक बात।

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दूसरी बात यह है कि रेडियो मैं अमूमन तभी सुनता हूं जब कार में होता हूं। बिना रेडियो के कार ड्राइव करना मेरे लिए कठिन होता है। दिक्कत यह है कि कार वाली रेडियो भी इन दिनों कभी बज जाती है , कभी विश्राम ले लेती है। जब मन बज जाए , जब मन बंद। सोनी का रेडियो है। बहुत खोजते-खाजते लखनऊ में सोनी रेडियो का एक वर्कशाप मिला। पर वहां के निकम्मे कर्मचारी कहने लगे कि रेडियो खुलवा कर लाइए। हफ़्ते-दस दिन छोड़ जाइए। देख लिया जाएगा कि बन सकता है कि नहीं। वहां उपस्थित मेकैनिक , मैनेजर , इंजीनियर , चपरासी सभी की हिंदी में ऐसी-तैसी की। कहा कि तुम लोग बोझ हो सोनी कंपनी पर। खा जाओगे , कंपनी को। ऊंचे स्वर में भी यह सब कहा। पर किसी को घंटा फ़र्क़ नहीं पड़ा। मतलब ड्राइविंग के साथ रेडियो का आनंद लेने के लिए अब नई रेडियो ख़रीदना ज़रूरी जान पड़ता है। कार वाली रेडियो तो मिल भी जाएगी पर घर में सुनने के लिए रेडियो कहां से लाऊं ? बहुत खोजा तो फिलिप्स का एक छोटा रेडियो किसी तरह मिला। पर उस से कुछ सुन पाना कठिन ही है। तो गाने भी अब टी वी पर यू ट्यूब लगा कर सुनना हो पाता हूं। इस नाते ज़्यादातर समय टी वी रेडियो में कनवर्ट रहता है।

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लेखन के शुरू के काल में आकाशवाणी के लिए कुछ नाटक लिखे थे। ग़लती हुई कि उन नाटकों को संभाल कर नहीं रख सका। यही हाल बहुत सी कविताओं , कहानियों , लेखों के साथ भी हुआ। तब लगा कि रेडियो वाले तो संभाल कर रखेंगे ही। रेडियो से नाटक प्रसारित हो गया है तो अब अमर हो गया। हमेशा के लिए सुरक्षित। यही हाल तमाम पत्रिकाओं और अख़बारों में छपी रचनाओं के साथ भी हुआ। वह रचनाएं अब न किसी आकाशवाणी में हैं , न किसी पत्रिका , अख़बार में छपी रचना प्राप्य हैं। हुआ यह कि जब गोरखपुर से दिल्ली गया तो कई प्रकाशकों से साबक़ा पड़ा। कुछ उपन्यास , कहानी-संग्रह छपे। तो लगा कि रेडियो नाटकों की किताब भी क्यों न छपवा लूं। एक प्रकाशक से बात हुई तो वह तैयार भी हो गए। एक बार गोरखपुर गया तो गया आकाशवाणी केंद्र भी। अपने नाटकों की तलाश में। कई लोगों से बात की। सब ने एक सुर से एक ही बात की। बताया कि न रिकार्डिंग मिल पाएगी , न स्क्रिप्ट। रिकार्डिंग रेज हो चुकी है। स्क्रिप्ट रखने की परंपरा ही नहीं है। यह सब सुन कर दिल धक्क से रह गया।

बाद के समय में कुछ महत्वपूर्ण कवियों यथा निराला , पंत , महादेवी , दिनकर , बच्चन आदि के काव्य-पाठ की रिकार्डिंग की तलाश भी बहुत की विभिन्न आकशवाणी केंद्रों पर। रेडियो के बड़े-बड़े अफ़सरों से बात की। लखनऊ , गोरखपुर , दिल्ली तक। किसी कवि की कोई रिकार्डिंग कहीं मिली नहीं। बारी-बारी सब ने हाथ खड़े कर दिए। ऐसे ही भोजपुरी में एक अमर गायक हुए हैं मोहम्मद खलील। उन के गाने भी आकशवाणी या दूरदर्शन पर खोजना बहुत कठिन है। भोलानाथ गहमरी के लिखे और मोहम्मद खलील के गाए एक गीत को याद करते हुए जो कहूं तो मन में ढूंढलीं , जन में ढूंढलीं , ढूंढलीं बीच बजारे , कौन खोंतवा में लुकइलू , आहि हो बालम चिरई ! तो मोहम्मद खलील को भी इस उस आकाशवाणी में खोजा। नहीं मिले। एक बार प्रयाग गया तो कवि मित्र कैलाश गौतम से भेंट हुई। उन से ज़िक्र किया। वह उन दिनों आकाशवाणी में थे। वह बोले , कुछ करता हूं। हैं , कुछ गीत मेरे पास। तलाश करता हूं। गो कि उन्हों ने स्पष्ट कहा कि आकशवाणी की रिकार्डिंग को बाहर करना नियमत : ठीक नहीं है। पर उन्हों ने कहा कि , ‘ रजा कुछ करब ! और भेजब , लखनऊ। ‘

गाज़ीपुर के हमारे अनुज योगेश विक्रांत अब तो मुंबई में रहते हैं। फ़िल्म-धारावाहिक लिखते हैं। पर तब प्रयाग में ही रहते थे। पत्रकार थे तब। उन्हों ने जिम्मा लिया। और कैलाश गौतम के सौजन्य से मोहम्मद खलील के कुछ गीत रिकार्ड कर एक कैसेट में लखनऊ मेरे पास भेजा। बहुत आनंद लिया हम ने मोहम्मद खलील के गए गीतों का। अब भी सुनता रहता हूं। पर तब जब कैसेट अचानक विदा होने लगे। रेडियो ही नहीं , टेप रिकार्डर भी विदा होने लगे। तो लखनऊ के अमीनाबाद में गोमती एजेंसी से कैसेट पर उपलब्ध मोहम्मद खलील के उन गीतों को , कुछ कवियों के काव्यपाठ भी सी डी में , फिर डी वी डी में कनवर्ट करवा कर सुरक्षित किया। बाद में योगेश विक्रांत जब मुंबई गए और अपने पांव जमा लिए तो मोहम्मद खलील के गीतों को यू ट्यूब पर डाल दिया। मोहम्मद खलील के गाए गीत अब , जब मन तब सुनना आसान हो गया है। पर कवियों की कविताएं सुनना अब भी कठिन ही नहीं , असंभव सा है। वह कहते हैं न हरि अनंत , हरि कथा अनंता ! तो ऐसे अनंत क़िस्से हमारे पास उपस्थित हैं। क्या-क्या लिखूं , क्या न लिखूं ?

ख़ैर , आज का दिन बहुत अच्छा गुज़रा। कार ड्राइव करते समय संगीतकार नौशाद का एक बहुत पुराना इंटरव्यू और अभिनेत्री नरगिस द्वारा प्रस्तुत जयमाला कार्यक्रम सुनने को मिल गया। मन आनंद से भीग गया। तो क्या फ़िल्मी गीत-संगीत ही या शास्त्रीय संगीत की ही दरकार है हमारी सरकारी या निजी संस्थाओं को , साहित्य की नहीं। साहित्य के बिना कोई संगीत जीवित रहा है ? रहा भी है तो कितने दिन ? संगीत के एक लेखक हैं मुन्ना लाल। बहुत पहले बहुवचन में छपा उन का एक लेख , संगीत में विचार की याद आ रही है।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार है)

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