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आदि शंकराचार्य ने ‘प्रस्थानत्रयी’ (गीता, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र) का भाष्य लिखने के साथ ही वेदान्त के अनेक प्रकरण-ग्रंथों की रचना भी की है। इनमें ‘विवेकचूड़ामणि’ सबसे महत्त्वपूर्ण है। अन्य प्रमुख ग्रंथ ‘तत्त्वबोध’, ‘आत्मबोध’, ‘वाक्यवृत्ति’, ‘अपरोक्षानुभूति’, ‘साधन-पंचकम्’, ‘दशश्लोकी’ आदि हैं। इनमें भी ‘तत्त्वबोध’ को वेदान्त की प्रवेशिका माना गया है। अद्वैत-सम्प्रदाय के विद्यार्थियों के लिए यह प्रथम पुस्तक बतलाई गई है। इसमें भगवान-भाष्यकार ने वेदान्त की ‘टर्मिनोलॉजी’ (पारिभाषिक-शब्दावली) का प्रश्नोत्तर शैली में वर्णन किया है- जैसे कि ब्रह्म क्या है, ईश्वर क्या है, माया क्या है, आत्मा क्या है आदि।
‘तत्त्वबोध’ का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग वह है, जहां शंकर ने तीन शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण) और तीन अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) की बात की है और तीनों शरीरों का तीनों अवस्थाओं से सम्बंध बताया है। शंकर पूछते हैं, ‘स्थूल शरीर क्या है?’ फिर स्वयं ही उत्तर देते हैं कि यह पंचीकृत पंचमहाभूतों से निर्मित है और इसमें छह विकार देखे जाते हैं- अस्तित्व, जन्म, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय, विनाश। शरीर के जन्म लेने और वृद्धि करने को उन्होंने विकार बताया है, क्योंकि जन्म अनिवार्यत: मृत्यु की ओर और वृद्धि क्षय की ओर ले जाने वाली है। उन्होंने स्थूल शरीर के बारे में एक और बात कही है- ‘यह भोगायतन है।’ यानी इसी शरीर में मनुष्य सुखों-दु:खों को भोगता है। वहीं सूक्ष्म-शरीर को उन्होंने ‘भोग-साधन’ कहा है। स्थूल शरीर अगर भोग का ‘भवन’ है तो सूक्ष्म शरीर भोग का ‘उपकरण’।
‘सूक्ष्मशरीरं किम्’ : अपने ही इस प्रश्न पर शंकर का उत्तर है, यह अपंचीकृत पंचमहाभूतों से निर्मित है। इंद्रियाँ, प्राण, मन-बुद्धि से यह निर्मित होता है। वहीं कारण शरीर कार्य-कारण सम्बंध से स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का कारण है। वह अविद्यारूप है।
इन तीन शरीरों का तीन अवस्थाओं से सम्बंध कैसे है? शंकर बताते हैं कि जाग्रत अवस्था में आत्मा स्थूल शरीर-अभिमानी होती है, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर-अभिमानी और सुषुप्ति में कारण शरीर-अभिमानी। पहली अवस्था में आत्मा ‘वैश्वानर’ कहलाई है, दूसरी में ‘तैजस’ और तीसरी में ‘प्राज्ञ’ (एक चौथी अवस्था भी है, किन्तु ‘तत्त्वबोध’ में उसकी चर्चा नहीं की गई है। उसकी चर्चा ‘माण्डूक्योपनिषद्’ में है। उसे ‘तुरीयावस्था’ कहा है!)
जाग्रत अवस्था में चेतना बहिर्मुखी होती है और संसार के सम्पर्क में आती है। इंद्रियों से वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ग्रहण करती है। मन उसे संशयात्मक और बुद्धि निश्चयात्मक ज्ञान कराती है। मन और बुद्धि से ग्रहण किए जाने वाले ज्ञान से एक और वृत्ति अस्तित्व में आती है, जो अहंकार है। इससे जीव में ज्ञाता, कर्त्ता और भोक्ता का भाव उत्पन्न होता है। जाग्रत अवस्था में जो कुछ देखा-सुना, उससे निर्मित संस्कार स्वप्नावस्था में अनुभव में आते हैं।
चिन्मय मिशन के लिए स्वामी शंकरानन्द ने ‘तत्त्वबोध’ का भाष्य लिखा है। उन्होंने इसमें बड़ी सुन्दर बात कही है कि “स्वप्नलोक में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता, वहाँ आत्मा के प्रकाश में ही सब कुछ दिखलाई देता है।” इसीलिए उसे ‘तैजस’ कहा है। वहीं सुषुप्ति ऐसी अवस्था है, जिसमें जीव को न आत्मस्वरूप का बोध होता है, न जगत् का। यह ‘प्राज्ञ’ अवस्था है और यह जाग्रत व स्वप्नावस्था से श्रेष्ठ है। इस प्रगाढ़ निद्रा में भी अगर आत्मचेतना हो तो वह समाधि की दशा कहलावेगी- “या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।” (श्रीमद्भगवद्गीता) ।।2.69।।
कितने आश्चर्य की बात है कि हम प्रतिदिन इन तीन अवस्थाओं से होकर गुज़रते हैं, किन्तु उनका इस तरह से सांगोपांग विवेचन नहीं करते, जैसे शंकर ने ‘तत्त्वबोध’ में किया है। हमें अपने एक ही शरीर का बोध रहता है, शेष दो का नहीं। और मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त से निर्मित अंत:करण हमारे भीतर जैसे लीलापट की रचना करता है, उसे भी हम तटस्थ होकर देखते नहीं, बल्कि उसमें तल्लीन हो जाते हैं। जबकि ‘तत्त्वबोध’ के आरम्भ में ही शंकर ने ‘आत्मा क:?’ इस प्रश्न के उत्तर में कह दिया है कि तीनों शरीरों से पृथक और तीनों अवस्थाओं का साक्षी जो है, वह आत्मा है। चैतन्य इसका लक्षण है। यह सत्यस्वरूप है।
‘तत्त्वबोध’ के एक अध्याय में ‘छान्दोग्योपनिषद्’ के महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ पर भी संक्षिप्त चर्चा की गई है। उसमें शंकर ने कहा है कि इस महावाक्य का जो ‘तत्’ (ईश्वर) और ‘त्वम्’ (जीव) है, वह वाच्यार्थ नहीं, लक्ष्यार्थ है। यानी स्थूल-सूक्ष्म शरीराभिमानी जीव ‘त्वम्’ नहीं है, उसका शुद्ध चैतन्य ‘त्वम्’ है। इसी तरह ‘तत्’ का वाच्यार्थ भी भले उपाधि-विशिष्ट ईश्वर (‘मायोपाधिक’) हो, किन्तु उसका लक्ष्यार्थ उपाधिशून्य शुद्ध चैतन्य है।
वेदान्त चैतन्य का विज्ञान है!
और ‘तत्त्वबोध’ इस विज्ञान की प्रथम पाठ्यपुस्तिका!
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