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गुलज़ार

कामरेड समरेश बसु और फ़िल्मकार विमल रॉय का अमृत कुंभ !

अरे कुंभ नहीं पसंद है , कोई बात नहीं । गोली मारिए , कुंभ को । पर नाग बन कर , फ़न काढ़ कर , नित्य प्रति , क्षण -क्षण खड़े रहना इतना ज़रूरी है ?

एक ही गीतकार, एक ही साल में दो बातें कैसे लिख सकता है?

हम चाहे जितने रैशनल हों, उस परम्परा के ही हिस्से हैं, जिसमें सदियों से ईश्वर की प्रार्थना की जा रही है। जब हम अपने विपरीत जाकर कोई चीज़ लिखते हैं, तब वह परम्परा हम में से बोलने लगती है।