चलित आयुर्वेदिक व्यवसायी के छापे के पीछे सशक्त मेडिकल संस्थाओं की लॉबी
मेडिकल संस्थाएं आयुर्वेद का बंटाधार करने में सबसे आगे।
Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:
कल राजधानी रायपुर मे चलित आयुर्वेदिक के
एक घुमंतू व्यवसायी के उपर कार्यवाही की गई । कुछ दिन बाद फिर पहले जैसे हो जाएगा । दुर्भाग्य से 72 साल हो गये आजादी को, परन्तु आयुर्वेदिक चिकित्सा पर कोई सार्थक नीति का आज भी अभाव है । कुल मिलाकर अपनी सुविधा के अनुसार आयुर्वेदिक नीति तय की जा रही हैं । इसमे सबसे बड़ा दोष मेडिकल संस्थाओं की लॉबी का है । इनके चिकित्सकों ने अपने सुविधा के अनुसार नीतियो मे फेर बदल चाहा । अपने मुताबिक नीति बनाने और लागू करने का अधिकार इनके लिए एक खिलौना जैसा हो गया । एक सुदृढ लाॅबी होने के कारण से इन्हे किसी भी कानूनी प्रावधानों को लागू कराने मे कभी भी परेशानी नहीं हुई । यह भी कटु सत्य है कि इन्हे जनता के हितों और स्वास्थय से कोई लेना-देना नहीं है । इन्हे पहले अपने व्यवसाय से मतलब है । कभी भी इन्होंने सुदूर लोगों की तकलीफ़ों से वास्ता नही रखा है । कुछ समय पहले तक लैब टेक्नीशियन सुदूर इलाके में जाकर नियमित जांच की सुविधा की सेवायें मुहैया करा रहे थे । पर मेडिकल संस्थाओं की स्ट्रांग लॉबी की वजह से उन पर कानूनी कार्रवाई कर बंदिशे लगा दी गई । प्रदेश में कितने पैथालॉजिसट है, कितनों ने सुदूर अंचलों मे अपनी सेवाये दी है ? मतलब जीने का अधिकार सिर्फ शहर के लोगों को ही है । क्या शुगर जैसी नियमित जांच के लिए कोई सौ किलोमीटर का सफर तय करेंगा ? वहीं जो क्वालिफाइड चिकित्सक है वो कैसे इसके बगैर चिकित्सा करेंगे ? मुझे तो शासन के दोहरे मापदंड पर आश्चर्य होता है कि इनके प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भी लैब टेक्नीशियन ही रिपोर्ट देते है, यह कैसे मान्य होता है । फिर वो लाॅबी इन जांच पर मौन क्यो है ? कुल मिलाकर यह नीतियों से ज्यादा व्यवसायिक खेल है ।
आज तो हालात यह है कि जो नए छोटे जिले बने है शायद वहा पर एम.डी, डीसीपी पैथोलॉजिस्ट नहीं होंगे । उच्च न्यायालय ने जो दिशानिर्देश तय किए है, उसके मुताबिक सारे लैब टेक्नीशियन अब कलेकशन सेंटर बन कर रह गए है । पर इसका खामियाजा वो जनता भुगत रही हैं, जिसे चिकित्सा पाने के मौलिक अधिकार है, जिसे षडयंत्र पूर्वक वंचित किया जा रहा है ।
उल्लेखनीय है कि सेवा भाव के बजाय व्यवसाय से ओतप्रोत ये लोग पिछड़े इलाकों मे जाना नहीं चाहते । सिर्फ शहरों में ही रूख करते है । अभी शहरों में बहुत प्रतिस्पर्धा होने के कारण शहर से लगे ब्लाक की तरफ रूख कर रहे है । यहां पर भी कमोबेश यही स्थिति होने लगी है । खैर विषयानंतर हो रहा है । यही कारण है कि जब शासन ने इस अप्रिय स्थिति से निपटने के लिए उन पाठयक्रमों का सहारा लिया तो यह बात इनकी बिरादरी को चुभ गई । पता नहीं सर्वोच्च न्यायालय मे कितने केस चल रहे हैं । पर जब यह पाठ्यक्रम चालू होता है तो उसी समय पुरजोर विरोध करना चाहिए था । पर अपने तात्कालिक हितों को देखते हुए इनकी रहस्यमय खामोशी तब टूटती है, जब इनके हितों पर आंच आने लगती हैं । फिर चिकित्सकों की इस लाबी को प्रशिक्षित चिकित्सक भी झोला छाप नजर आनें लगते है । दुर्भाग्य से यह लोग दुविधा के शिकार ज्यादा है । जब संगठन आपत्ति करता है, तो यह मौन साधे रहते है । पर अपने व्यवसाय के सहयोग लेने के लिए आते है, तो दिखावे के लिए अपनो का ही विरोध भी करते है, जो कोई मायने नही रखता । मैंने तो शुद्ध झोलाछाप चिकित्सको के लिए भी सीएमई आयोजित होते देखी है । खैर, यह इनका व्यवसायिक मामला है ।
भाजपा के शासनकाल के समय मे भी अप्रिय स्थिति का सामना कुछ चिकित्सको को करना पड़ा था । आप तब तक क्वालिफाइड है जब तक आप इनके अधीन होकर काम करते हैं । आप तब तक क्वालिफाइड लैब टेक्नीशियन है जब तक आप इनके अधीनस्थ होकर काम करते हैं । अगर आपने स्वतंत्र होने की कोशिश की तो मेडिकल संस्थाओं की यह लॉबी आपको झोलाछाप डॉक्टरों की कतार मे लाकर खड़ा कर देगी । इसके लिए मै शासन के नीतियों को ज्यादा जिम्मेदार मानता हूँ । विश्वविधालय में कोई भी कोर्स क्यो चालू कर देते है, जो बाद में विवाद का विषय बनता है । वहीं विश्वविधालय भी उतना ही जिम्मेदार है, जो ऐसे पाठयक्रम को चालू कर एक छात्र की जिंदगी से खेलता है, जिसे वो आगे चलकर रोजगार बना कर अपना जीवन यापन करना चाहता है।
फिर वो भी जिम्मेदार है जो नीम हकीम खतरे जान की फैक्ट्री के खिलाफ उस समय मौनव्रत धारण कर लेते है । इन्हे पुरजोर तरीके से इनके खिलाफ़ आवाज उठाना चाहिए ।
साहब यह व्यवसाय है, जब मरीज को आराम मिलता है तो पढा लिखा शिक्षित व्यक्ति भी झोला छाप चिकित्सकों पर विश्वास करता है । अगर यह आज भी सम्मान से इस व्यवसाय में खड़े है, तो इनकी काबिलियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ।
आज की स्थितियों मे अगर मेडिकल संस्थाओं की यह लॉबी मात्र आयुर्वेदिक या बीएएमएस जैसे चिकित्सकों से अगर अपने को असुरक्षित महसूस करे, तो मैं इस पर क्या बोलूं ? मुझे अपने उन चिकित्सक मित्रों से भी शिकायत है, जिनके परिजन, माता-पिता, भाई, बहन, पत्नी, किसी के सास श्वसुर, किसी का बेटा आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक चिकित्सक है। जब चिकित्सक संस्थाओं की यह लॉबी इनकी डिग्री पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है, या इन्हें झोलाछाप की कैटेगरी में लाकर खड़ा कर देती है; तो इनका जमीर कैसे नहीं जागता? यह अपने आप मे ही हास्यापद है । यह बात पूरे चिकित्सक समुदाय को मालूम है ।
एक बात और गौर करने लायक है। जब ये लोग अपने व्यवसाय के लिए आते है, तो इन सब बातों से सहमत नहीं है, ऐसा कहते हैं । पर दुर्भाग्य से कोई आपत्ति लिखित दर्ज नहीं करते । शहर के सभी नामी-गिरामी और बड़े-बड़े अस्पतालों ने अपने संस्थाओं में पीआरओ या एजेंट नियुक्त कर रखे हैं, जिनका काम ही है सुदूर इलाकों में जाकर इन्ही झोलाछाप डॉक्टरों के जरिए अपने व्यवसाय को बढ़ाना है। अगर आपमें विरोध करने का माद्दा है तभी आप बच पाओगे अन्यथा छापे मरवा कर आपका व्यवसाय बंद करवाने में इस लॉबी को महारत हासिल हो चुकी है ।
फिर वही आऊ जहां से चालू किया था। कल जिस चलित आयुर्वेदिक दुकान पर कानूनी कार्रवाई की गई, यह इनका पुश्तैनी व्यवसाय है । मुझको तो आश्चर्य होता है कि रायपुर जैसे राजधानी में यह चलती-फिरती गाडी मे विश्वास पैदा कर व्यवसाय कर ले। आश्चर्य होता है कि अभी तक यह चिकित्सक समुदाय विश्वास पैदा करने मे क्यो असफल रहा है । अपने परंपरागत चिकित्सा के द्वारा अपने तथाकथित विज्ञापन से कोई शहर मे रहकर व्यवसाय कर ले, तो मै उस चलते फिरते दुकानदारों से जयादा पढे लिखे शिक्षित ग्राहकों को ज्यादा दोषी मानता हूँ ।
पर अब तक जो हुआ उसे छोड़कर अब समय है कि चिकित्सा के अधिकार के बारे में अब साफतौर पर चिकित्सा शिक्षा दी जानी चाहिए और उसके चिकित्सा पद्धति का साफतौर पर उल्लेख कर, उसे प्रवेश के पहले छात्र और उनके अभिभावकों को अवगत करा देना चाहिए । वहीं इन निकले चिकित्सकों को अपने फायदे के लिए कम तनख्वाह पर रखने पर भी आपत्ति भी दर्ज होनी चाहिये । अब समय आ गया है कि स्पष्ट नीति स्वास्थ्य पर लागू हो । बस इतना ही
डा.चंद्रकांत वाघ-अभनपुर(ये लेखक के अपने विचार हैं)