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संत कबीर पर कनक तिवारी का विशेष लेख

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Positive India:Kanak Tiwari:
मेरे सबसे प्रिय कवि कबीर हैं ।इससे मैं इनकार नहीं करता। गर्व के साथ कहता हूं, “कबीर”

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कबीरदास भक्तिकाल के सबसे पहले जन्मजात तथा बड़े कवि होने के साथ साथ सबसे बड़े आधुनिक भारतीय कवि और विश्व कविता को भारतीय चुनौती हैं। कबीर संभवतः अकेले कवि हैं जिन्हें एक साथ बहुविध अर्थों में धार्मिक और सेक्युलर कहा जा सकता है। धर्म का एक अर्थ मज़हब से है। इसलिए मुसलमान जुलाहा परिवार के सदस्य कबीर हिन्दू या मुसलमान दोनों होते अथवा नहीं होते हुए दोनों मजहबों की पृथक पृथक सर्वोच्चता के प्रतिमान हैं। वे दोनों मजहबों की गंगा जमुनी संस्कृति के तीर्थ प्रयागराज भी हैं। सेक्युलर होने के अर्थ में कबीर संविधान की मजहब निरपेक्षता के अनुरूप हैं। कबीर किसी मजहब के संत नहीं होने से प्रत्येक मजहब के प्रति निरपेक्ष हैं। कबीर सर्वोच्च अर्थों में धार्मिक होते हुए लगातार सेक्युलर बने रहते हैं। कबीर पहले असरदार कवि हैं जिन्होंने मनुष्य और ईश्वर के रिश्ते को जनवादी चश्मे से देखने की कोशिश की।

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अजूबा है हिन्दू धर्म के तीन बड़े देवताओं विष्णु, शिव और ब्रह्मा की सांसारिक अवतारी उपस्थिति नहीं होने से दिन प्रतिदिन के आधार पर सहज उपलब्ध नहीं हैं। विष्णु के दशावतारों में राम और कृष्ण का जबरदस्त प्रभाव है। राम तो ‘रामनाम सत्य है‘ सुनते मृतक संस्कार के सबसे प्रामाणिक परिभाषित सत्य हैं। उनकी सामूहिक याद बिना मनुष्य की मुक्ति नहीं होने का जनविश्वास है। कृष्ण राम की तरह अंतिम या पूर्ण सत्य तो नहीं हैं लेकिन राम से कहीं अधिक व्यापक फलितार्थों के जीवन की सांसों की धड़कन हैं। मनुष्य जीवन के सभी रूप कृष्ण की सांसों से अनुप्राणित कृष्ण की मुस्कराहट जीवन में सार्थक है लेकिन आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध तथा सीता के वियोग में रोते हुए राम का चेहरा मनुष्य होने की गंभीरता का सबसे मजबूत शिलालेख है।

राम और कृष्ण के अमर चरित्रों को भारतीय अस्मिता और यादघर में कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास, जायसी और रसखान जैसे अमर कवियों ने इतिहास की स्याही से वक्त के माथे की लकीरें बनाया है। इनमें भी कबीर सबसे पहले हुए हैं। ऐसे हुए हैं कि अब तक सबसे पहले ही हैं। कबीर ने संसार के इतिहास में सबसे पहले और प्रामाणिक कवि के रूप में कई तिलिस्मों को तोडा़। कबीर के लिए ईष्वर है भी और नहीं भी। यदि है तो उसे मनुष्य होने का प्रमाणपत्र देते हैं। मनुष्य में ईश्वरत्व ढूंढ़ना एक उदात्त और उदास भावना एक साथ है। ईश्वर को इंसान बनाने की कोशिश कबीर की कविता का अद्भुत आचरण है।

सबसे बड़े दार्शनिक दीखते कबीर सांसारिक जीवन को आत्मा के लिहाफ या चादर की तरह ओढ़ते हैं। कबीर की निर्विकार्यता कविता के साकार होने का सबसे बड़ा यत्न है। कबीर सुसंस्कृत भाषा, व्याकरण, प्रतिमानों, स्वीकृत मानदंडों और समयसिद्ध रूपकों को झुठलाते सहज बखानी करते हैं। सहजता बडे दार्शनिक सत्यों को कैसे जन्म देती है। इस रहस्य को बूझने के लिए कबीर की कविता के सामने नैतिक आचार्यों को भी घुटने टेकने पड़ते हैं।

जीवन, साहित्य, अस्तित्व और अंर्तदृष्टि के एकमात्र पडाव का नाम है सत्य। सत्य वह हवा है जिसे मुट्ठी में बंद किया जा सकता है। लेकिन ऐसी कोई मुट्ठी होती कहां है। हवा तो लेकिन होती है। सत्य वह धुआं है जिस पर चढ़कर अंतिम होने की अटारी तक पहुंचा जा सकता है। अटारी तो होती है लेकिन वैसा धुआं पैदा करने वाली आग कहां है। सत्य तो नदी की खिलखिलाहट का सतरंग है। पानी की शीतलता और बहाव में नदी की किलकारी अप्रतिहत गूंजती है लेकिन उसकी अंर्तध्वनि में अनहद नाद के गूंजने को कौन आत्मसात कर पाता है। यदि ये सब चमत्कार, निष्कर्ष या अंतिम होने के समानार्थी समीकरण हैं तो यह सवाल पूरी दुनिया में सबसे बेहतर, सबसे प्रामाणिक विधि से और भविष्य तक की पीढ़ियों को चुनौतीविहीन और निर्विकल्प बनाते कबीर ही क्यों नज़र आते हैं।

सत्ताकुलीन समाज द्वारा कबीर की सीख की दुर्गति की जा रही है। मुसलमान और ईसाई को जबरिया हिन्दू बनाकर उस प्रक्रिया को घर वापसी कहा जा रहा है। कबीर तो आत्मा और परमात्मा तक की घर वापसी के फेर में नहीं थे। उन्होंने तो अपने दुनियावी चरित्र को सफेद धुली बिना दाग वाली चादर की तरह जैसे का तैसा रख देने की सूचना दी थी। उनके लिए तो महानता भी एक विकार है जो मनुष्य के चरित्र को अतिरंजित करती है। सत्य के अन्वेषक कबीर उस अनहद नाद में लीन हो गए थे जो अंर्तयात्रा किसी को भी पाथेय तक पहुंचा सकती है। ‘कूढ़ मगज़ हिन्दू‘, ‘लव जेहाद‘, ‘आमिर खान की फिल्म पी.के.‘, ‘कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति‘, ‘समान नागरिक संहिता‘, ‘मदरसों की तालीम‘ और इसके बरक्स कूढ़मगज़ मुसलमान, आतंकवादियों, लखवी, मुहम्मद उमर, अल जवाहिरी, हाफिज़ सईद वगैरह को लेकर संदिग्ध आचरण करते हैं। कबीर से बेहतर सेक्युलरवाद की परिकल्पना संविधान में भी नहीं है। संविधान तो सेक्युलरवाद के नाम पर अलग अलग कोष्ठकों में धर्मगति को नियंत्रित करता है। कबीर मुफलिस थे अर्थात आत्मा के निद्र्वन्द्व गायक। मौजूदा राजसत्ता उनके सही अर्थ को नहीं बूझती हुई उलटबांसी में आचरण कर रही है।

साभार:कनक तिवारी( यह लेखक के अपने विचार हैं)

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