www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

संसार में इतने लोग भोजन करते हैं, उनके बरतन कौन मांजता है?

-सुशोभित की कलम से-

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India: Sushobhit:
संसार में इतने लोग भोजन करते हैं, उनके बरतन कौन मांजता है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो अमूमन उनके मन में कौंधता नहीं, जिनके बरतन कोई और धोता हो। दो बार का भोजन कोटिजन पा रहे हैं, उसे भी कोई न कोई पकाता ही है। उसमें भी भारी उद्यम है। पर सुरुचि भी है। किन्तु जूठे बरतन?

आप पायेंगे कि संसार के बहुत काम ऐसे हैं जो चुपचाप होते हैं पर न हों तो हमारी मुसीबत हो। सड़क पर झाड़ू से लेकर खेत-कारखाने के काज और भोजन पकाना, बासन मांजना ऐसे ही हैं। और इसीलिए जूठा भोजन छोड़ना घोर पाप है क्योंकि अन्न की अवमानना तो है ही, उस मनुष्य की भी है जो पीछे जूठी थाली मांजने बैठेगा!

तालाबंदी के दिनों में यह भावना आ गई थी कि बरतन मांजे बिना रात सोने चला जाना ठीक नहीं है। जिस थाली-कटोरी में भोजन किया, फिर उसे वहीं चौके में छोड़ जाने में कुछ बहुत असुंदर है। इसमें शील नहीं, भलाई नहीं, यह बात सम्यक मालूम होती नहीं। तो सोने से पूर्व बासन मांजने को प्रवृत्त हुआ। नलके से बहते जल की धार भुनसारे चित्तवृत्ति के साथ एकमेक हो जाती। मन ठहर जाता। इधर एकान्तवास में रहा तो फिर वह दुहरा!

सदैव ही अनुभव किया है कि जूठे बरतन मांजने में बड़ी दीनता है। जभी तो लंगर आदि में सेवादारों को बरतन धोने में जोत देते हैं कि करो यह काज। इसमें साधुता तो है ही। साधुलोगों का जीवन तो ऐसा ही होता है कि अपनी लंगोट स्वयं धोई और अपना भात स्वयं पकाया। फिर अपनी लुटिया, थाली, कटोरी, कढ़ाह पखारने का काज किसी और का कैसे हो? साधुता दीनता के बिना सम्भव नहीं, यों ऊपर से देखें तो लगता है कि साधु के व्यक्तित्व में बड़ी धज है, ऐंठ है, बैरागियों सा बांकपन है। साधुओं के हठ के क़िस्से भी कम नहीं। किंतु आख़िर में वह भी वृहत्तर सृष्टि की एक संतान है। जैसे कोई गृहस्तिन, वैसा ही परिव्राजक।

पर बासन मांजे बिना मुक्ति नहीं है, मित्र। जीवन में भी सभी भांडे धोकर टांड पर रख देना होते हैं। इससे अभिमान रोहिणी नक्षत्र सा गल जाता है! रसोई में जूठे बरतन बरजकर सो रहना अच्छी वस्तु नहीं है। जिस बरतन में भोजन किया है, आपका वह जूठा कोई और मांजे, यह भी मनुज के गौरव के अनुकूल नहीं। बड़े से बड़ा धन्नासेठ भी अपने जूतों के तस्में स्वयं बाँधता है, कमीज़ के बटन किसी दास से नहीं लगवाता। नृपेन्द्र के केश कोई और काढ़ता हो, वैसी बात नहीं है। थोड़ी-बहुत दीनता तो सबमें होती है। जिसमें थोड़ी से अधिक होती है, वो थोड़ा और साधु हो जाता है!

Leave A Reply

Your email address will not be published.