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दम तोड़ती तथाकथित उदारवादी तथा अर्बन नक्सलियों की जोड़ी

उदारवादियों ने मानवाधिकारों के नाम पर केवल अपने निजी अधिकारों का संरक्षण किया।

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Positive India:
तथाकथित उदारवादी समय-समय पर मोदी सरकार को मानवाधिकारों के हनन के लिए दोषी ठहराते हैं तथा आलोचना करते हैं। वे केवल उन लोगों के मानवाधिकारों की चिंता करते हैं जो राष्ट्र के टुकड़े करना चाहते हैं; अनुच्छेद 370 की आड़ में महिलाओं, दलित तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन करना चाहते हैं; आतंकवादियों तथा आतंकी हमला के आकाओं के समर्थन में खड़े हो जाते हैं; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में शोर मचाएंगे, लेकिन कार्टून बनाने वालों की गर्दन काट देंगे; न्यायाधीशों की प्रेस कॉन्फ्रेंस को मानवाधिकार बताएंगे, लेकिन स्वयं उन न्यायाधीशों के द्वारा अवमानना के केस की आलोचना करेंगे।

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कहने का तात्पर्य है कि इन तथाकथित उदारवादी तथा अर्बन नक्सलियों द्वारा द्वारा उठाये गए मानवाधिकारों का क्षेत्र केवल इन्हीं के अधिकारों के दाएं-बाएं घूमता रहता है।

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लेकिन मानवाधिकार इन सबसे बढ़कर कुछ और भी है।

भीषण गरीबी से छुटकारा भी एक मानव अधिकार है। भीषण निर्धनता में रहने वाले व्यक्ति की मर्यादा और आत्मसम्मान पर चोट लगती है; निर्धन महिला अपना व्यक्तिगत विकास नहीं कर पाती, अपनी क्षमताओं का विकास नहीं कर पाती। भीषण निर्धनता उसके मानवाधिकारों का हनन है। यह मैं नहीं कह रहा; यह संयुक्त राष्ट्र कहता है।

मानवाधिकार का अर्थ है सभी को स्वच्छ पानी मिले। स्वच्छ पानी की उपलब्धता का अधिकार एक मौलिक मानवाधिकार है जो न्याय तथा कानून के प्रशासन के लिए आवश्यक है। यह मैं नहीं कह रहा; यह संयुक्त राष्ट्र कहता है।

खुले में शौच करना; रेलवे लाइन के किनारे बैठ कर मल-मूत्र त्यागना भी उस व्यक्ति के मानवाधिकारों का हनन है; उसकी निजता (privacy) पर चोट पहुंचती है। यह तथाकथित उदारवादी आज यह मानवाधिकार वादी डेटा को लेकर निजता का प्रश्न उठाते हैं। लेकिन जब करोड़ों लोग खुले में शौच करते थे, उनकी निजता के अधिकारों के बारे में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं।
बैंकिंग सुविधाओं से वंचित रखना,आर्थिक सशक्तिकरण से वंचित रखना भी मानवाधिकारों का हनन है। मोदी सरकार आने के पहले 40 करोड़ भारतीयों के पास बैंक अकाउंट नहीं था। क्या यह उनके मानवाधिकारों का हनन नहीं था?

नागरिकों के पास कानूनी पहचान ना होना मानवाधिकारों का हनन है। मोदी सरकार के पहले करोड़ों भारतीयों को यह सिद्ध करने में कठिनाई आती थी कि उनका परिचय क्या है? लेकिन इस बारे में तथाकथित उदारवादी तथा मानवाधिकारी मुंह सिल कर बैठे रहे। आज मोदी सरकार ने सभी भारतीयों को आधार कार्ड के द्वारा कानूनी पहचान दी है।

सर के ऊपर छत ना होना; घर में बिजली ना होना; इंटरनेट की सुविधा न प्राप्त होना भी मानवाधिकारों का हनन है।

यह था गांधी का इंडिया। नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया, राहुल, प्रियंका, अर्बन नक्सल का इंडिया। जो भारत की सनातनी परिकल्पना से कहीं अलग-थलग था। जो भारतीयों को निर्धन रखना चाहते थे। चाहते थे कि कन्या, किशोरी और महिला खुले में शौच करे।

मोदी सरकार ने सभी गांवों में बिजली पंहुचा दी है। अगले चुनाव के पहले सभी भारतीयों के पास घर होगा; बिजली होगी; घर में नल से पानी आएगा; इंटरनेट की सुविधा होगी; बैंक अकाउंट होगा; जीवन एवं स्वास्थ्य बीमा होगा; निर्धनता से छुटकारा मिल जाएगा; स्वरोजगार के अवसर मिलेंगे। यह सभी मूलभूत मानवाधिकारों का संरक्षण है;उनका प्रमोशन है।

इन “उदारवादियों” ने मानवाधिकारों के नाम पर केवल अपने निजी अधिकारों का संरक्षण किया, उसे बढ़ावा दिया। बहुसंख्यक वर्ग के अधिकारों की बात करना गलत माना या उसे अनदेखा कर दिया। बहुसंख्यक समुदाय के मानवाधिकारों का मजाक उड़ाया, उनकी मांगो को सांप्रदायिक करार दिया।

फिर जब यही निर्धन वर्ग प्रधानमंत्री मोदी के विज़न को वोट देता है, उनका समर्थन करता है, तब उन्हें समझ नहीं आता कि प्रशांत भूषण का मामला,अर्बन नक्सल को बेल दिलवाने का प्रयास, IIT एंट्रेंस एग्जाम, शाही परिवार की अंतः कलह, दिल्ली दंगो वाली पुस्तक के प्रकाशन को रोकने का प्रयास जैसे समाचारो को प्रमुखता देकर भी भारतीय जनता ने उनके अजेंडे को क्यों नकार दिया?

कारण स्पष्ट है।

प्रधानमंत्री मोदी चुपचाप भारतीयों के मानवाधिकारों का संरक्षण कर रहे हैं; उसे बढ़ावा दे रहे हैं। जिसे हर शहर और गांव गांव में रहने वाला भारतीय देख रहा है, महसूस कर रहा है, तथा उससे लाभान्वित हो रहा है। उन्हें इन अर्बन नक्सलों की नारेबाजी और सोशल मीडिया के हैशटैग से कोई लगाव नहीं है।

आभार:अमित सिंघल वाया सुजीत तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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