हिंदुओं का दुर्भाग्य भी देखिए भारत जोड़ो आंदोलन के पूरे इस प्रकरण में।
-विशाल झा की कलम से-
Positive India:Vishal Jha:
हिंदुओं के अंतस में हिंदुत्व रक्षा व राष्ट्र रक्षा के लिए बरसों से उठ रही लहर का मूर्त रूप बनकर आया जंतर मंतर का 8 अगस्त। राष्ट्रहित के लिए किसी अदृश्य दबाव समूह ने मानो पहली दफा अपना मूर्त रूप साकार किया। यह आंदोलन राष्ट्रीय जागरण में जितनी अपनी भूमिका अदा करेगा दबाव समूह के रूप में उतना ही सफल होगा।
किंतु इस जागरण आंदोलन के ढांचे से हमारी एक कमजोरी भी निकल कर आई। वह कमजोरी ये कि नैरेटिव का व्यापार चलाने वाले लिबरल लेफ्ट खेमा समेत तमाम दरबारी मीडिया के हम सेल्फ मेड शिकार हुए। एक पल के लिए कहें तो हमारा यह सामाजिक आंदोलन विफल हो जाता है तो भी शिकार हम हुए। सफल हो जाता है तो भी शिकार हम हुए।
आंदोलन के यहां फिलहाल विफल होने का अर्थ है हमें हमारी दबाव समूह की मूर्तता को भंग कर दिया जाना। विकृत कर दिया जाना। हतोत्साहित कर दिया जाना। सरकारी मशीनरी द्वारा। पहले तो उस मीडिया ने हमें सत्ता पक्ष के ही चुनावी यांत्रिकी का अंग बता कर अपने संपादकीय बुलेटिन में उपयोग किया। फिर वायरल नारे की आड़ में हमारी गिरफ्तारी की वकालत की। बावजूद इसके हम विफल नहीं हुए। किंतु गिरफ्तारीयों का सिलसिला ने हमारी विफलता को प्रमाणित कर दिया। तब हम टूटे। दरबारी गिद्ध मीडिया ने जमकर हमारा शिकार किया। जब अश्विनी उपाध्याय स्वयं ने नारा लगाने वाले को गिरफ्तार करना जरूरी बताया। जिस बैनर तले आंदोलन हुआ उस पर फोटो Pushpendra Kulshrestha की भी थी। लेकिन उन्होंने आंदोलन शुरू होने से पहले ही आने से मना कर दिया।
यदि हम सफल ही हो जाते हमारी इस जागरण क्रांति की सफलता का मतलब क्या है? जंतर मंतर से हिंदूवादी नेताओं में से एक ने यह भी कहा था कि “सरकार झूकेगी हमारे सामने”। यही सफलता का सीधा सीधा तो मतलब है, एक पंक्ति में। सरकार के झुकने के दो अर्थ होते हैं- या तो दबाव समूह की मांगें मान लेना अथवा सत्ता से बाहर हो जाना।
अगर सरकार हमारी मांगे मान ही लेती तो क्या हमारी इन मांगों में ऐसे कोई मुद्दे थे जिनके महीने दो महीने अथवा साल भर के टाइम फ्रेम हों? जवाब है- नहीं। क्योंकि हमारी ये मांगें ऐसी हैं जिन पर एक सशक्त सत्ता को लगातार दशकों तक काम करना होगा। फिर, जिस एजेंडे पर एक सत्ता को कार्य करने के लिए दशकों तक का समय चाहिए उस एजेंडे के लिए सरकार को एक दिन में झुका देने का क्या अर्थ बनता है?
अपितु इसमें एक राष्ट्रीय चेतना अथवा सामाजिक जागरण की निरंतरता आवश्यक होती है। बावजूद इसके अगर हम वर्तमान में कार्य कर रही सत्ता को झुका ही देते हैं, कमजोर ही कर देते हैं, तो फिर यह एक सेल्फ मेड शिकार कहा जाएगा नैरेटिव का व्यापार सजाने वाली मीडिया के लिए। अर्बन नक्सल गिरोह के लिए। देश विरोधियों के लिए। वामपंथियों के लिए।
समय काल अथवा परिधि अभी वो नहीं कि हम नकल करें शाहीन बाग नुमा आंदोलन की। हम कल्पना क्यों नहीं करते हैं कि जब कभी कांग्रेस की सत्ता होगी, क्या कोई सरजील इमाम शाहीन बाग करेगा?
हमें इस समय आवश्यकता है हमारी सत्ता को और मजबूती देने की। ताकि वह साहस कर पाए हमारे मुद्दों को सुलझाने में। हमारा काम है कि राष्ट्रहित अथवा समाज हित के मुद्दे को हम संपूर्ण देश में भुनाएं। ताकि सरकार इस मुद्दे को आसानी से हल करने के लिए साहस दिखाए। इसके लिए हमें आवश्यकता थी राष्ट्रीय स्तर के जनसंवाद की। अश्विनी उपाध्याय तथा पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जैसे विद्यावान लोग हमारे खेमें में हैं। ये सभी सफलतापूर्वक अपने जीवन काल में लगातार इस कार्य को करते चले आ रहे हैं। मुझे मालूम है पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने यह कहा भी था कि हमें सरकार खिलाफ जाकर करने वाली क्रांति नहीं खड़ी करनी है। बल्कि हमें राष्ट्रीय स्तर पर हमारी जागृत चेतना का इजहार करना है। इसे मूर्त रूप देना है। एक तरह से संख्या प्रदर्शन करना है।
राम मंदिर को लेकर हमारे एक जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी, जिनके उपर कांग्रेसी होने का आरोप भी लगता रहा है, को क्यों भूल गए? जिन्होंने सरकार के खिलाफ व न्यायालय में सबज्युडिस राममंदिर मामले के खिलाफ जाकर राम मंदिर की नींव डालने की उद्घोषणा कर दी थी। क्या उनकी यह उद्घोषणा हिंदू हित में नहीं थी? किंतु बावजूद इसके हमने उनकी उद्घोषणा का समर्थन नहीं किया। हिंदू समाज भी उनके साथ खड़ा नहीं हुआ। हिंदू समाज समझ गया कि दरअसल यह मामला संपूर्ण राम मंदिर आंदोलन प्रक्रिया को ही कमजोर करने वाला है।
क्योंकि उद्घोषणा का ध्येय दरअसल वर्तमान समर्पित सत्ता को कमजोर करना था। क्योंकि हमें तत्कालीन सत्ता पर भरोसा था। इसलिए हमने सत्ता पर भरोसा करना ही बेहतर समझा। बस हमारी जागृति, हमारी चेतना, हमारा विमर्श सत्ता को राम मंदिर हेतु समर्पण के लिए शक्ति देता था। सत्ता के प्रति हमारे विश्वास ने ही राम मंदिर मसले को सहजता से हल करने की शक्ति दी। यह कार्य हमें आज भी करना चाहिए था।
लेकिन अचानक से ऐसा क्या हो गया कि अब हम इस सत्ता को एकदम से झुका देना चाहते हैं। कमजोर कर देना चाहते हैं। बजाय कि हम इसके लिए एक राष्ट्रीय चेतना से सत्ता को सशक्त करें।
साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार हैं)