Positive India: Kanak Tiwari:
योजनाबद्ध तरीके से भारतीय संविधान के प्रति एक घृणित अपराध करने का कुत्सित प्रयास किया गया था। अखिल भारतीय संत समिति द्वारा 68 पृष्ठों का एक कथित श्वेतपत्र लेखक स्वामी मुक्तानंद सरस्वती के नाम से प्रकाशित किया गया। गुलाबी कवर वाली पुस्तिका में संविधान, उसकी आत्मा और उसके निर्माताओं के विरूद्ध भद्दे, असभ्य और तर्कहीन कटाक्ष किए गए। राष्ट्रीय ध्वज, अशोक चक्र और राष्ट्र गीत का खुलेआम अपमान किया गया है। संविधान को भारतीय संस्कृति के नाशक की संज्ञा देते हुए उसे लोकद्रोही तक करार दिया गया है। 13-14 अक्टूबर 1992 को अयोध्या में चार कथित संतों की एक समिति स्वामी मुक्तानंद सरस्वती की अध्यक्षता में भारतीय संविधान का अध्ययन कर उसमें परिवर्तनों की सिफारिश करने के उद्देश्य से गठित की गई थी। इस समिति ने पुस्तिका के आवरण पृष्ठ पर ही यह कटाक्ष अंकित किया, ’’भारत की एकता, अखंडता, भाईचारे एवं साम्प्रदायिक सद्भाव को मिटानेवाला कौन है?’’ तथा ’’भारत में भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार एवं अधर्म को फैलानेवाला’’ भी वर्तमान ’इंडियन’ संविधान को दोषी ठहराया गया है।
यह पुस्तिका अचानक नहीं लिखी गई। इसके प्रकाशन से एक सप्ताह पहले एक भाजपा सांसद के निवास पर आयोजित पत्रवार्ता में लेखक ने स्वामी वामदेव महाराज के साथ राष्ट्र का आह्वान किया कि वह इस हिन्दू विरोधी संविधान का तिरस्कार करे। उन्होंने यह दम्भोक्ति भी कि उन्हें देश के कानूनों पर विश्वास नहीं है और यह भी कि साधु संत कानूनों के ऊपर हैं। लेखक ने यह तक लिखा, ’’ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारत समाज को 200 साल में इतना नहीं तोड़ सका, जितना आजादी के बाद बने संविधान ने कुछ ही सालों में तोड़ा है। आजादी के बाद भारत को ’इंडिया’ बनाने की साजिश बराबर चल रही है।’’ मुक्तानन्द यह भी लिखते है कि यह दुःख की बात है कि भारतीयों को दुनिया में ’इंडियन’ के नाम से जाना जाता है। वे पाठकों को याद दिलाते हैं कि हमारी आजादी की लड़ाई हिन्दुस्तान के नाम पर लड़ी गई और ’वंदेमातरम्’ हमारा राष्ट्रीय गीत था। उनके अनुसार, ’’भारत का ’धर्म’ अंग्रेजों के ’रिलीजन’ का समानार्थी शब्द नहीं है। नागरिकता का कानून जिसके अनुसार भारत में पैदा हुआ प्रत्येक व्यक्ति इस देश का नागरिक है, काफी नहीं है। पूरे संविधान की भाषा इतनी जटिल है कि उसके आशय को समझना मुश्किल है।’’
असाम्प्रदायिकता से परहेज करने वाले इस प्रतिनिधि-दस्तावेज का कहना है कि संविधान का अनुच्छेद 30, जिसके अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा तथा धर्म के आधार पर शैक्षणिक संस्थाएं खोलने का अधिकार है, पृथकतावादी ताकतों को बढ़ावा देता है। मुक्तानंद इस बात से बहुत परेशान हैं कि जब अनुच्छेद 16 में यह स्पष्ट लिखा है कि प्रत्येक नागरिक को किसी भी तरह की नौकरी मिलने के सिलसिले में बराबर की आजादी है, तो फिर पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण दिए जाने के प्रावधानों को संविधान में क्यों रखा गया? उन्हें सबसे अधिक गुस्सा अनुच्छेद 44 को लेकर है जिसके अनुसार राज्य सभी नागरिकों के लिए समान संहिता बनाने का प्रयास करेगा। वे झल्लाकर लिखते हैं, ’’यह अनुच्छेद संविधान के रचयिताओं ने भांग पीकर लिखा होगा।’’ मुक्तानंद को यह भी दुख है कि देशभक्त नक्सलवादियों के साथ राष्ट्रदोहियों जैसा बर्ताव किया जाता है।
संविधान में हिन्दी भाषा के प्रयोग, उसके द्वारा अंग्रेजी का स्थान लेने की स्थितियां आदि अनुच्छेदों पर मुक्तानंद की भृकुटि तनी हुई है। उनके अनुसार, ’’हमारे संविधान निर्माताओं ने हिन्दी भाषा से संबंधित प्रावधानों के जरिए तुष्टिकरण (भाषायी अल्पसंख्यकों के), अनिश्चितताओं, पृथकतावाद, भय, संशय और अनुत्तरदायित्व की भावनाओं को बढ़ावा दिया है।’’ धारा 370 पर जिसमें कश्मीर संबंधी विशेष प्रावधान हैं, पुस्तिका में भाजपा की घोषित नीति के अनुकूल प्रहार किए गए हैं। इसी तरह नागालैंड से संबंधित अनुच्छेद 371 (ए) को ईसाइयों के प्रभाव से युक्त कहा गया है। पुस्तिका में अनुच्छेद 51 (क) का जिसमें नागरिकों के कर्तव्यों का ब्यौरा दिया गया है, मखौल उड़ाया गया है। लेखक के अनुसार, ’’जिस देश को इंडिया’ अर्थात् भारत कहा जाए, जिसके राष्ट्रध्वज पर सामा्रज्यवादी अशोक का चक्र अंकित हो तथा जाॅर्ज पंचम की प्रशस्ति में गाए गए ’जन-गण-मन’ को राष्ट्रीय गीत बनाया जाए। वहां नागरिकों के कर्तव्यों की बात करना बेमानी होगा।’’ उनके अनुसार, पश्चिमी जीवन पद्धति और मांसाहार के कारण भारत को नष्ट कर दिया गया है। किन्हीं अवकाश प्राप्त न्यायाधीश कामतानाथ गुप्त का कथन उद्धृत किया गया है, ’’संविधान बनाने वाले अंग्रेजों के मानस पुत्रों की भारतीय संस्कृति तथा समाजवाद में कोई दिलचस्पी नहीं थी।’’
पुस्तक की भूमिका में कोई स्वामी हीरानंद लिखते हैं, ’‘वर्तमान संविधान देश की संस्कृति, चरित्र, परिस्थिति, भूमि, जलवायु के प्रतिकूल है। विदेशों का मुखापेक्षी है।’’ संघ-परिवार के कुछ प्रतिनिधि इसमें व्यक्त विचारों का समर्थन करते हैं। 14 जनवरी, 1993 (मकर संक्राति) के ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैय्या लिखते हैं, ’’इस देश की विशिष्टताएं संविधान में झलकनी चाहिए। हमें संविधान में इंडिया अर्थात् भारत के बदले भारत अर्थात् हिन्दुस्तान कहना चाहिए था। शासकीय दस्तावेज भारतीय संस्कृति को मिलीजुली संस्कृति कहते हैं जबकि वह मिलीजुली नहीं है। यह सब दर्शाता है कि संविधान में परिवर्तन की आवश्यकता है। इस देश के स्वभाव और प्रतिभा का ज्यादा मौजूं संविधान हमें भविष्य में बनाना चाहिए।’’
भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी 24 जनवरी, 1993 को आंध्रप्रदेश के अनंतपुर में फरमाते हैं, ’’वर्तमान स्थिति का कारण हिन्दुत्व की उपेक्षा है। जोशी के अनुसार, समूचे संविधान पर दुबारा गौर करने की जरूरत है। दूसरे ही दिन, इलाहाबाद में हुए संत सम्मेलन में अपने पर्चें की आलोचना से सशंकित होकर मुक्तानंद ने कहा, ’’हमें भारतीय संविधान में विश्वास है परन्तु हम उसकी कुछ विसंगतियों को दूर करना चाहते हैं।‘‘ पुस्तिका में भद्दे तरीके से यह भी लिखा गया है, ’’इंडिया के संविधान लेखकों ने अपनी बुद्धि को अंग्रेजों के हाथों बेच दिया था।’’
लेखक:कनक तिवारी(ये लेखक के अपने विचार हैं)