Positive India:Rajesh Jain Rahi:
पैसे की अहमियत कुछ बढ़ी है,
करेले की बेल नीम चढ़ी है।
मालपुए बस अपनों को मिलेंगे,
आपके हिस्से ये बासी कढ़ी है।
गढ़ उनका ढह गया अरे!अचानक,
तनी हुई वो छोटी सी गढ़ी है।
संसद में भी कल कूदे कई थे,
हर तस्वीर ज़ेहन में मढ़ी है।
बच सको तो बच जाओ काल से,
महामारी कुटिल बेहद बढ़ी है।
अमर होता नहीं कोई जहां में,
शहंशाहों की खबर भी पढ़ी है।
न ग़ज़ल न सजल ख़याल हैं मेरे,
खाली बैठे ये रचना गढ़ी है।
लेखक: राजेश जैन ‘राही’, रायपुर