www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

सम्राट अशोक ने अपने अभिलेखों में स्वयं को “देवानंपिय पियदसि लाजा” से सम्बोधित किया है

-सुशोभित की कलम से-

Ad 1

Positive India: Sushobhit:
‘देवानंपिय पियदसि लाजा’!
इन्हीं शब्दों में सम्राट अशोक(Ashoka)ने अपने अभिलेखों में स्वयं को सम्बोधित किया है। यह प्राकृत भाषा में है। संस्कृत में इसका रूपान्तर होगा : ‘देवप्रिय प्रियदर्शी राजा’!
अशोक के अभिलेख सदियों से उपस्थित थे और पुरातत्त्वविदों की दृष्टि में थे, किन्तु ब्राह्मी लिपि में होने के कारण वे पढ़े नहीं जा सके थे। अन्तत: 1837 ईस्वी में जेम्स प्रिन्सेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़ लिया। किन्तु तब भी यही समझा जाता रहा कि ये किसी प्रियदर्शी नामक सम्राट के अभिलेख हैं। अशोक से उनका तारतम्य नहीं जोड़ा जा सका था। ऐन 19वीं सदी तक भारतीय इतिहास में अशोक की ख्याति मौर्य वंश के शासकों के अनुक्रम में एक राजा से अधिक की नहीं थी, हालाँकि विशेषकर सिंहलदेश के बौद्ध ग्रंथों में अशोक बहुत प्रसिद्ध थे। सम्राट ने वहाँ अपने पुत्र महिन्द और पुत्री संघमित्रा को धम्म के प्रसार हेतु जो भेजा था।

Gatiman Ad Inside News Ad

प्रिन्सेप ने समझा कि ये अभिलेख सीलोन के देवानंपिय तिस्स नामक सम्राट के हैं। लेकिन जिस साल ब्राह्मी लिपि को पढ़ लिया गया, उसी साल यानी 1837 में जॉर्ज टर्नवर ने ‘दीपवंस’ का एक सिंहली संस्करण प्राप्त किया, जिसमें स्पष्ट उल्लेख था कि “बुद्ध के 218 वर्ष उपरान्त पियदसि ने राजकाज सम्भाला, जो बिन्दुसार के पुत्र और चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र थे और जो उज्जयिनी के राज्यपाल रह चुके थे।”

Naryana Health Ad

और फिर, वर्ष 1915 में इसकी पुरातात्विक पुष्टि हुई, जब कर्नाटक के मसकी में सी. बीडन ने एक माइनर रॉक एडिक्ट की खोज की, जिस पर स्पष्ट शब्दों में लिखा था- ‘देवानंपिय असोक’!

सिद्ध हुआ कि यह अशोक ही थे, जिन्होंने ‘देवानंपिय पियदसि’ के नाम से पूरे भारतवर्ष में यत्र-तत्र बीसियों अभिलेख उत्कीर्ण करवाए थे। इतिहास का पुनर्लेखन हुआ। व्यापक पुरातात्विक विवरणों के आलोक में अशोक एक धूमकेतु की तरह उभरे। उन्हें ‘अशोक महान'(Ashoka the great) कहा गया!

‘देवानंपिय’ : इतिहासकारों में मतभेद है कि इसे कैसे पढ़ें? सामान्यत: इसका अनुवाद ‘देवताओं के प्रिय’ की तरह किया जाता रहा है। अंग्रेज़ी में ‘बिलवेड ऑफ़ द गॉड्स’। किन्तु बहुजन इतिहासकारों का आग्रह है कि यह ‘देवानान पिय’ नहीं ‘देवानंपिय’ है और यहाँ देव से आशय ‘बुद्धदेव’ से है। अशोक स्वयं को बुद्धप्रिय बताते हैं, देवताओं के प्रिय नहीं।

‘पियदसि’ : यानी ‘प्रियदर्शी’। वह जो प्रिय का दर्शन करता हो या वह जो प्रिय दीखता हो। अशोक कुरूप थे। उनकी कुरूपता के कारण ही सम्राट बिन्दुसार उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से अचकचाए थे। किन्तु अर्हत पिंगल-वत्सजीव की इस घोषणा कि अशोक ही सम्राट बनने के सुपात्र हैं, ने अशोक का पथ प्रशस्त किया। कौन जाने, अपने रूप की ग्रंथि के वशीभूत होकर ही अशोक ने स्वयं को ‘प्रियदर्शी’ कहा हो। अज्ञेय ने ‘उत्तर-​प्रियदर्शी’ नामक एक नाटक लिखा है, उसमें भी ‘प्रियदर्शी’ अशोक ही हैं। आधुनिक काल में भारत की एक सम्राज्ञी भी ‘प्रिय​दर्शिनी’ कहलाई थीं!

और ‘लाजा’ : अशोक ने अपने लिए बस यही एक उपाधि धारण की थी : ‘राजा’। अशोक का साम्राज्य सबसे विशाल था। उनके बाद कई सम्राट हुए, जिनकी शक्ति अशोक से कम थी, किन्तु उन्होंने स्वयं को ‘महाराजा’ कहा। चन्द्रगुप्त प्रथम ने तो ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। गुप्त वंश के सम्राटों ने ‘महाराजाधिराज’ के आगे ‘परमभट्टारक’ भी जोड़ दिया। जैसे-जैसे साम्राज्य छोटे होते गए, उपाधियाँ बढ़ती चली गईं। जबकि सम्राटों के सम्राट अशोक केवल ‘लाजा’ कहलाए थे।

अशोक का यह चित्र साँची से है। यह शिल्प पहली सदी ईस्वी पूर्व में निर्मित है। इसमें ‘देवानंपिय पियदसि लाजा’ रथ पर सवार होकर रामग्राम की ओर जाते दिखलाई देते हैं! रामग्राम कोलियों का नगर था, जहाँ एक स्तूप में तथागत बुद्ध के अवशेष थे। बुद्धप्रिय, धम्मप्रिय, संघप्रिय अशोक वहाँ बुद्ध के अवशेष लेने ही पहुँचे थे!

Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

Horizontal Banner 3
Leave A Reply

Your email address will not be published.