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|| संभव गाँधी : असंभव गाँधी ||

-अनिल द्विवेदी की कलम से-

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Positive India:Anil Dwivedi:
मोहनदास करमचंद गांधी क्या थे? शांति के सबसे बड़े प्रवक्ता, सादगी का अर्थशास्त्र, देश को संघर्ष करने का रास्ता दिखाने वाले महापुरूष या नैतिकता के शीर्ष उदाहरण : भूमंडलीकरण और अंतरनिर्भरता के दौर में यह टेढ़ा सवाल हो सकता है क्योंकि गांधी के व्यक्तित्व में इतनी ज्यादा गुंजाइशें हैं कि सूझों की यह श्रृंखला खत्म नही हो सकती। दरअसल गांधी ने एक जीवन में कई-कई जीवन जीए और हम हैं कि एक ही जीवन जी पाना भारी लगता है।

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वर्तमान दौर में गांधी को हम दो वर्गों में देख-सुन सकते हैं। एक है संभव गांधी और दूसरा है असंभव गांधी। अन्य महापुरूषोंं की तरह गांधी भी एक असंभव व्यक्ति थे। उन्हीं के शब्दों में : मैं कोई नई बात नहीं बता रहा हूं। जिन आदर्शों में मेरा विश्वास है वे तो युगों युगों से चले आ रहे हैं। भारत में ही नहीं दुनिया के सभी देशों में। लेकिन पहले के किस महापुरूष के साथ गांधी के जीवन का सादृश्य है? क्या ईसा मसीह ने यरूशलम में कभी हड़ताल की, क्या गौतम बुद्ध और महावीर, गृहस्थ का या सार्वजनिक जीवन बिताते हुए मोक्ष की साधना कर सकते थे? क्या लेनिन या चे गवेरा में यह नैतिक साहस था कि अपने आंदोलन के दौरान वे कोई कानून तोड़ें और गिरफ्तार होने के बाद न्यायाधीश के सामने मांग करें कि कानून तोडऩे के लिए उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। इस तरह के सवालों की झड़ी लगाना बेहूदा है क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते। मगर इससे इस तर्क की धार कुंद नहीं हो जाती कि ये सभी एक जैसे महापुरूष थे और अपनी परिस्थिति, प्रतिभा और सामथ्र्य के अनुसार उन्होंने जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास किया। इन्होंने इतनी ऊंचाई पर जाकर जीवन को जिया कि हम सामान्य लोगों के लिए उसका अनुसरण करना संभव नहंी है। काँच हीरा नहीं बन सकता।

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यह और बात है कि हर काँच में हीरा बनने की तमन्ना छिपी होती है। आज मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी कहना सहज प्रतीत होता है लेकिन स्वयं गांधी को कैसा लगता था? वे एक जगह लिखते हैं : मैं एक असहयोगी हूं। यदि कोई ऐसा विधेयक लाया जाए जिसके अनुसार मुझे महात्मा कहना और मेरे पाँव छूना अपराध घोषित किया जा सके तो मैं खुशी खुशी उसका समर्थन करूंगा। जहां मैं अपना कानून चलाने की स्थिति में हूं, जैसे कि अपने आश्रम में, वहां ऐसा करने पर एकदम पाबंदी है।

अगर यह शब्द गांधी के हैं तो कौन कहेगा कि वे महात्मा नहीं थे। लेकिन महात्मा की उपाधि उन्हें किसी देश के कानून या धार्मिक नियमों ने नहीं दी जैसा वेटिकन सिटी में पोप या मदर टेरेसा को संत घोषित करने के लिए की जाती है। हिन्दुस्तान में महात्मा पैदा नही होते बल्कि वे अपने वचन और कर्मों से स्वीकार कर लिए जाते हैं। स्वयं गांधीजी के जीवनकाल में कुछ व्यक्तियों को गांधी कहा जाने लगा था जैसे सीमांत गांधी, बंगाल के गांधी या छत्तीसगढ़ के गांधी सुंदरलाल शर्मा। और प्रधानमंत्री उनकी तरह हाथों में झाडूं थामे सडक़ पर सफाई के लिए निकल पड़ते हैं। कोई चरखा कातता है, हरिजन कॉलोनी में सफाई या आश्रम बनवाकर रहता है, कोई गांधी की तरह लेख लिखता है या कोई उनके रास्ते पर चलते हुए राज्यसभा की टिकट हथिया लेता है या कोई एक एनजीओ बनाकर गांधी तरह पीस स्टडीज करने लगता है। गांधीजी अपने पूरे व्यक्तित्व में एक असंभव व्यक्ति लगते थे। वे राम या कृष्ण की तरह देवता नहीं थे। इसलिए यह मानकर नहीं चला जा सकता कि गांधी को छोड़ो, हम उनकी बराबरी नही कर सकते।

जिस सांसारिक मोह और चुनौतियों के आगे हम हार मानकर ऐसा सोचते हैं, गांधीजी भी इन्हीं से होकर गुजरे। उनके बच्चे थे, पत्नी थी जिसे गांधीजी ने अतिथि का मलमूत्र साफ ना करने पर घर से बाहर निकालने की चेतावनी दी थी। वे रेल के तीसरे डिब्बे में सफर करते थे। मजिस्टे्रट से बहस करते और जेल चले जाते। गांधीजी आखिर आदमी ही थे जो बीमार पड़ते थे, आपरेशन होते हैं, कई बार मरते मरते बचते हैं, जो डेढ़ पसली का होते हुए भी बर्तानवी हुकूमत को चुनौती दे सकते हैं। जो हिंदू मुसलमान एकता के लिए कई दिन भूखे रह सकते हैं, जो दलितों को सम्मान दिलाने के लिए यदि वे सवर्णोे से लोहा लेते हैं या जो वेदों, स्मृतियों और पुराणों की प्रामाणिकता पर भी शक करते हैं, अगर ऐसे गांधी पर विश्वास कर देश के करोड़ों लोग उनके पीछे चल सकते हैं तो हममें से सैकड़ों या हजार लोग गांधी के रास्ते पर क्यों नही चल सकते।

अपने अंदर झांकिए क्योंकि भारत का स्वतंत्रता संघर्ष गवाह है कि हजारों लाखों लोगों ने छोटा मोटा गांधी बनने की, उनकी तरह जीने की, सत्य अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए अपनी जान देकर यह साबित कर दिखाया कि गांधी पूरी तरह असंभव नहीं है, उन्हें जीकर दिखाया जा सकता है जैसा कि गांधीजी की मृत्यु के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग नाम का एक अश्वेत हुआ जिसने गांधी को बहुत दूर तक संभव करके दिखाया और एक दिन गांधी की तरह गोली से मारा भी गया। अपने भीतर की साधारणता पर विजय पाते हुए ऐसे अनेकों को सलाम। इतिहास पलटकर देख लीजिए कि सबके सब गांधी के बताए रास्ते पर चलना चाहते हैं लेकिन गांधी ही क्यों? वे खुद गांधी क्यों नहीं बन सकते क्योंकि कईयों को यह असंभव लगता है।

जीवन के सफर में गांधीजी ने खुद को कई बार अकेला पाया तब उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की इन लाइनों का सहारा लिया कि जोदि तोर डाक सुने केउ ना आसे, तोबे एकला चलो रे। यह गांधी का कलेजा ही था कि वृदधावस्था में भी जब उन्हें बापू कहने वाले शासन का सुख भोग रहे थे वे बिहार के मुसलमानों और नोआखली के हिंदुओं का दर्द कम करने के लिए अकेले निकल पड़े थे। गांधीजी जैसे व्यक्तित्व का हमारे बीच होना जैसे यह सांत्वना प्रदान करता है कि भारत संभावनाविहीन नही है।

परंतु आज का समय असंभव गांधी सा नजर आता है। इसके विपरीत गांधीजी जहां संभव नजर आते हैं वहां हम बेहतर मनुष्य बनने के लिए बहुत कुछ सीख सकते हैं। जैसे ब्रम्हचर्य का पालन हो ताकि निर्भया जैसी कालिख भारत के चेहरे पर ना पुते। जैसे दूसरों की सेवा का आदर्श अपना सकते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों का दुख हमें अपना दुख लगे। बहुत से लोग मानते हैं कि गांधी ने अच्छाई का जबरदस्त पाखंड किया। किया होगा लेकिन उन्होंने पाखण्ड में इतनी अच्छाई दिखाई तो आप प्रामाणिकता के साथ इतनी अच्छाई दिखाइए, आप गांधी से भी बड़े हो जाएंगे।

लेकिन सवाल बड़ा या महत्वपूर्ण होने का नहंी है। गांधीजी महान होने के लिए नहीं निकले थे। उन्होंने ईमानदारी से जीने की कोशिश की और वे महान हो गए। आज जो शब्द उछाले जा रहे हैं, उसके मुताबिक गांधीवाद पहले से ज्यादा प्रासंगिक है लेकिन वातावरण में गांधी का कोई असर दिखाई नहीं देता। यह उचित ही है। कुनैन का नाम लेने से मलेरिया का बुखार नही जाता, कुनैन खाना पड़ता है। कोई कह सकता है कि आज की परिस्थितियां कितनी कठिन हैं इसका प्रतिप्रश्र यह है कि जिन परिस्थितियों में गांधी गांधी बने थे, आज की परिस्थितियां क्या उनसे भी ज्यादा कठिन हैं?

साभार: अनिल द्विवेदी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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