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दशहरे के साथ पूर्वी और उत्तर भारत में ग्रामीण मेलों की शुरुआत हो चुकी

-संदीप तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sandeep Tiwari:
#दशहरा / #मेला
दशहरे(#Dussehra)की आहट के साथ पूर्वी और उत्तर भारत के कुछ राज्यों में ग्रामीण मेलों की शुरुआत हो चुकी है…कभी ये मेले ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ और मनोरंजन के प्रमुख साधन हुआ करते थे…इनका जादू लोगों, खासकर स्त्रियों और बच्चों के सर चढ़कर बोलता था… आधुनिकता की तेज रफ्तार में इन मेलों की प्रासंगिकता अब पहले जैसी तो नहीं रही मगर कुछ मामले में तो इनकी उपादेयता हमेशा बनी रहेगी…!!

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यदि कुछ देर के लिए आप मन से आभिजात्य की धूल झाड़कर अपनी जड़ों की ओर लौट चलना चाहते हैं तो ऐसे किसी मेले के चक्कर लगा आईए…वहां किसी दुकान पर पकौड़ी और गरमागरम जलेबियां खाईए… बीवी हो तो चोटी, रिबन, चूड़ियां, टिकुली-सिंदूर और बच्चों के लिए हवा मिठाई और गुड़ के गट्टे भी खरीद लीजिए…कहीं बाईस्कोप दिखे तो दिल्ली के क़ुतुब मीनार और आगरे के ताजमहल की सैर पर निकल जाईए…किसी थिएटर में नौटंकी-सौटंकी, नाच-गाने देखिए…यदि दिल के मरीज़ नहीं हैं तो झूले में थोड़ा-सा ऊपर-नीचे हो लीजिए…गांव की औरतों की धराऊ साड़ियों से उठती फिनाइल की चौतरफा गंध महसूस करिए…आप बिल्कुल भी मत सोचिए कि यह सब करते देख कोई आपको भद्र पुरुष या महिला या गंवार कह देगा…हम सब जन्म से गंवार ही हैं…भद्रता हमारा ओढ़ा हुआ चरित्र है…मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस आरोपित भद्रता से गाहे-बगाहे मुक्ति की दरकार तो होती ही है… मेले से भद्रता का ऐसा नैसर्गिक प्रतिकार कर जब आप घर लौटेंगे तो तमाम मानसिक, भावनात्मक थकावट सिरे से गायब हो चुकी होगी…!!

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गांव के ये मेले जीवन की समस्याओं और जटिलताओं से मुक्ति के आदिम और कारगर तरीके हैं…यह अपनी मिट्टी का असर है तथा अपनी सांस्कृतिक जड़ों में प्रवेश का सुख भी…!!!

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