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रेड इंडियन्स, माओरी आदि की बस्तर-त्रासदी

विश्व आदिवासी दिवस (9 अगस्त) पर कनक तिवारी का विशेष आलेख

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Positive India:Kanak Tiwari:
कोलंबस ने अमेरिका को ढूंढ़ा। उसका वहां के मूल निवासियों (जिन्हें इतिहास ने उत्तर अमेरिकी इंडियन या लोकप्रिय नाम रेड इंडियन दिया) से हिंसक संघर्ष 400 वर्षों तक चला। रेड इंडियन संस्कृति, अस्तित्व और इतिहास अब गुमनाम हैं। कोलंबस ने 2.50 लाख आदिवासियों को हैती में बलपूर्वक गुलाम बनाया। एक प्रजाति की संख्या तो घटकर बमुश्किल 500 रह गई थी। इन मूल वंषों को तबाह करने कई बार यूरोपियों ने चिकन पाॅक्स, मीज़ल्स और बड़ी माता जैसी बीमारियां उनमें फैलाईं। यूरोपीय सभ्यता की हैवानियत का चेहरा खूरेंजी से रंगा हुआ है। प्रकृति के साथ रहने वाले आदिवासियों के लिए ये अतिथि-बीमारियां असह्य थीं। कुछ प्रजातियों के लगभग 80 प्रतिशत लोग इन बीमारियों से मर गए।

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उन्नीसवीं सदी में गोरी नस्ल के शासक अमेरिकियों ने रेड इंडियन्स को मजबूर किया वे जंगलों और पहाड़ों की ओर चले जाएं। समझौते और संधियां हुईं। लेकिन (जैसी आज के अमेरिका की भी आदत है) किसी न किसी बहाने से संधियां सरकारों द्वारा तोड़ी गईं। उन्नीसवीं सदी के अंत में बचे खुचे मूल निवासियों को सभ्य बनाने का शिगूफा छेड़ा गया। बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया तो गया, लेकिन कानून बनाकर मादरी जुबान और जातीय आदतों से महरूम कर दिया गया। युद्ध में पराजय, सभ्यों के सांस्कृतिक दबाव, आरक्षित जगहों पर बसाहट, सांस्कृतिक क्षरण, मूल भाषाओं का उन्मूलन, सरकारी नीतियों में बार बार बदलाव, हीनतर व्यक्ति को गुलाम बनाने की मनोवृत्ति, कुपोषण, गरीबी, शराबखोरी, हृदय और मधुमेह जैसी बीमारियों ने सभ्यता का सहायक बनकर रेड इंडियन्स को तबाह कर दिया।

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आस्ट्रेलिया के मूल आदिवासियों के लिए सामूहिक हत्याएं अंगरेजों ने कीं। अंगरेजों ने आदिवासियों को पारंपरिक आवासों से बेदखल किया। उन्हें गोलियां मारी गईं और ज़हरखुरानी की गई। उन्हें गुमनाम इलाकों में खदेड़ा गया। बीसवीं सदी की शुरुआत में कई आदिवासी प्रजातियों का समूल नाश हो गया। प्रोफेसर कोलिन टैट्ज़ ने ‘जेनोसाइड इन आस्ट्रेलिया‘ नामक अपनी पुस्तक में इस भयावह अत्याचार का विषद वर्णन किया है। आदिवासी प्रजातियां दुनिया में अपने वन्य-जीवन में संस्कृति और सभ्यता के विन्यास तथा उत्कर्ष की ओर मुखातिब थीं। वैश्वीकरण ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पूरी दुनिया को आर्थिक विकास की नई समझ दी। जुल्म पहले से ही आदिवासियों पर ढाए जाते रहे। उन्हें सभ्य लोग ‘वन्य पशु‘, ‘जहरीले नाग‘, ‘अमानुश,‘ ‘मनुष्यता पर कलंक‘, ‘घृणित‘ और ‘पब्लिक न्यूसेंस‘ जैसे शब्दों से रेखांकित करते थे। दुनिया के सभ्य मुल्कों में आदिवासियों को बचाने के लिए कई सुरक्षात्मक कानून भी बनाए गए, लेकिन वह बरायनाम रहे। भूगोल और कानून के हथियारों से कथित सभ्य मनुष्यों ने मूल संस्कृतियों का निर्ममतापूर्वक वध किया है।

दक्षिण अमेरिका में आदिवासियों पर सामूहिक अत्याचार की अनुगूंजें उतनी वाचाल नहीं हैं। ब्राजील में करीब चालीस आदिवासी प्रजातियां हैं। बोलिविया, पराग्वे, इक्वेडोर और कोलंबिया में आदिवासियों की संख्या बहुत नहीं है। पेरू में करीब पंद्रह आदिवासी प्रजातियां हैं। पेरू के तेल भंडार करीब 75 प्रतिषत वनाच्छादित इलाकों में हैं। बड़ी तेल उत्पादक कंपनियों को सरकार आमंत्रण देती रही है। आदिवासी समाज में आक्रोष और शोषण का भय गहराता रहा है। पापुआ न्यू गिनी में मूल निवासियों में अपने अधिकारों को लेकर जागृति और चेतना है। पापुआ न्यू गिनी में भूमि का स्वामित्व आदिवासी समुदाय का होता है। समुदाय के अपेक्षाकृत निर्धन और अकिंचन लोगों में सुरक्षा की भावना है क्योंकि पूंजी और फसल का उत्पादन और वितरण समता के सिद्धांत के आधार पर करने का प्रयास किया जाता रहा है। उनकी मान्यता है मनुष्य धरती समेत कुदरत का न्यासी है। मनुष्य धरती का मालिक है-यह आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की पूंजीवादी अवधारणा है। उसकी बुनियाद रोमन कानून से उपजती है। यही तो भारत में आदिवासी इलाकों में और विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाकर किया जा रहा हैै।

विश्व बैंक और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का विकासशील देशों पर दबाव है। अमेरिका और यूरोप अपनी खनिज संपदाओं का उत्खनन नहीं कर रहे हैं। अमेरिका ने सद्दाम हुसैन पर झूठे आरोप लगाकर अरब मुल्कों के तेल उत्पादन पर अपना व्यापारिक शिकंजा कसा। हिन्दुस्तान उसके लिए फकत ग्राहक देश है। वह अपनी खारिज दवाइयां नए रैपर लगाकर बेचता है। आतंकवादियों और आतंक पीड़ित देशों दोनों को चोरी और साहूकारी से अपने हथियार बेचता है। विदेश नीति में दलाली, समझौता, संघर्ष और गुप्तचरी सबके लिए स्पेस रखता है। चीन से संघर्ष करना चाहता है और गलबहियां भी। दक्षिण पूर्व एशिया यूरोप और दक्षिण अमेरिका वगैरह में अपने कुछ पिट्टू देश भी पालता है।

भारत उसके लिए सौंदर्य का भी बाजार है। कुछ साल पहले लगातार भारत की ललनाएं विश्व सुंदरियां बनती रहीं। गोरों ने भारत के कुशल इंजीनियरों, डाॅक्टरों और प्रबंधन विशेषज्ञों को अपने यहां बेहतर नौकरियां देने के प्रलोभन और अवसर दिए। धीरे धीरे उनमें अपनी संस्कृति के अक्स इंजेक्ट भी करते रहे। साम्यवादी दुनिया के विघटन के बाद अमेरिका लोकतंत्रीय देशों का अधिनायकवादी नेता है। भारत की मौजूदा शासन-नीति अमेरिकी विचार की पिछलग्गू है। शोषक चाहते हैं भारत की खनिज, वन और मानव कौशल्य की संपदाएं लूट ली जाएं।

रेड इंडियन्स में कुछ हिंसक भी थे। उनमें लड़ने का ज्यादा माद्दा था। यही काम धनुर्धर माओरियों ने भी किया। आधुनिक सभ्यता का शोषक पूंजीवादी विचार भारतीय राजनयिकों के ज़ेहन में उतर गया है। दौलत की लूट खसोट के अधिकारों पर बंधन नहीं है बल्कि सरकारी कानूनों का प्रोत्साहन है। मुनाफाखोरी, जमाखोरी और कालाबाजारी की रोकथाम करने वाले कानूनों को लाइसेंस परमिट राज की औरस संतानें कहकर दाखिल दफ्तर कर दिया गया है। लिहाज़ा महंगाई और मुद्रा स्फीति उफान पर हैं। उन्हें रोकने के प्रयत्न अपनी पश्चिमी, आधुनिक, औद्योगिक, मशीनी दृष्टि के चलते सरकारें कर ही नहीं सकतीं। बस्तर इसी आधुनिक विकास-दृष्टि का दंश झेल रहा है। बस्तर एक प्रतीक है। अमरीका के मौजूदा गोरे चेहरे के पीछे जो काले इरादे हैं उन्हें इतिहास पढ़ने से कोताही करेगा। तो याद रहे बस्तर में भी रेड इंडियन्स का इतिहास दोहराए जाने की कोशिशे हो रही हैं।
साभार:कनक तिवारी

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