Positive India:Rajkamal Goswami:
रामकथा कोई मनोरंजन के लिए नहीं है । इसे बहुत भक्ति भाव और आदर के साथ सुनना पड़ता है । इसका मंचन भी होता है तो जो बालक राम का अभिनय करता है राम के स्वरूप में वह भी पूज्य होता है लोग उसकी आरती करते हैं ।
रामायण इस देश की जीवन रेखा है । हमारे जीवन जीने का ढंग रामकथा से ही प्रेरित है । पिता का पुत्र के प्रति ऐसा प्रेम कि पुत्र को वनवास देकर वह प्राण त्याग दे, दिये हुए वचनों के प्रति इतनी निष्ठा कि प्राण देकर भी वचन का निर्वहन करें और पुत्र भी ऐसा आज्ञापालक कि पिता की अंत्येष्टि के लिए भी नगर में लौटने से इनकार कर दे ।
कैकेयी ने केवल वनवास ही नहीं माँगा था । तापस वेष विशेष उदासी , चौदह बरस राम वनवासी । इन चौदह वर्षों में राम हास परिहास भी नहीं कर सकते थे और राम के मुखमंडल पर इस सम्पूर्ण अवधि में स्मित रेखा भी नहीं देखी गई । उन्होंने किसी नगर में प्रवेश नहीं किया न पंपापुरी में न लंका में । फिर भी माता के प्रति कहीं कोई दुर्भावना मन में भी नहीं लाए ।
भ्रातृभाव भी रामकथा से ही सीखते हैं चाहे भरत जैसा तपस्वी भाई हो जिसने चौदह वर्ष सिंहासन पर भाई के खड़ाऊँ रख कर राजधानी से बाहर नंदीग्राम में कुटिया में रह कर राज्य संचालन किया हो या लक्ष्मण की तरह साया बन कर वनवास में भाई साथ निभाया हो । भाई का जीवन में महत्व इस चौपाई में रेखांकित किया गया है ।
सुत बित नारि भवन परिवारा । होहि जाहिं जग बारहिं बारा ॥
अस बिचारि जिय जागहु ताता।मिलहि न जगत सहोदर भ्राता॥
जीवन के हर मोड़ पर रामकथा से शिक्षा मिलती है । मैत्री कैसी होनी चाहिए और मित्र के प्रति क्या कर्तव्य हैं,
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी
तिनहिं विलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।
मित्र क दुख रज मेरु समाना ॥
युद्ध के नियम भी रामकथा से ही निकल कर आये हैं और हमारे राजाओं ने उनका पालन किया है । रावण के नाश के बाद लंका की नारियों के साथ कहीं किसी दुर्व्यवहार का पता नहीं चलता । दूसरे धर्मों में तो सबको दासी बना कर सैनिकों में बाँट देने का चलन है ।
हनुमान श्रीराम के निःस्वार्थ सेवक हैं । जिनहिं न चाहियँ कबहुँ कछु । कुछ चाहिए ही नहीं उन्हें वे सहज भक्त हैं, तुम सन सहज सनेह । अतुलित बलशाली होने के बाद भी अत्यंत विनम्र और दौत्यकर्म में निपुण । लंका गये तो केवल सीता का पता ही नहीं लगाया , शत्रु का बल तौल भी आये और मनोबल तोड़ भी आये ।
पूरी भारतीय सभ्यता ही रामकथा के इर्द-गिर्द रची बसी है । राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और रामराज्य हमारा आदर्श है ।
दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज काहुहि नहिं व्यापा ॥
कम से कम सनातनियों को तो रामकथा कहते सुनते और मंचित करते समय पर्याप्त आदर सम्मान और श्रद्धा प्रदर्शित करनी चाहिए ।
साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)