रायपुर दक्षिण उपचुनाव: रिकॉर्ड के लिए नहीं प्रतिष्ठा के लिए लड़ाई
-दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से-
Positive India: Diwakar Muktibodh:
रायपुर लोकसभा की बहुचर्चित विधान सभा सीट रायपुर दक्षिण के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे 23 नवंबर को घोषित हो जाएंगे. यह सीट दोनों पार्टियों, कांग्रेस व भाजपा के लिए करो या मरो की स्थिति में नहीं है अलबत्ता प्रतिष्ठा की लड़ाई जरूर है. छत्तीसगढ में भारतीय जनता पार्टी मजबूत बहुमत के साथ सरकार में है इसलिए इस सीट को जीतने से उसकी राजनीतिक स्थिति पर विशेष फर्क नहीं पड़ेगा. विधान सभा में उसके विधायकों की संख्या में एक का इज़ाफा होगा लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण घटना सांसद बृजमोहन अग्रवाल के प्रभा मंडल पर पड़ने वाले प्रभाव की रहेगी. वे आठ बार और इस क्षेत्र से लगातार 4 बार के विधायक रहे हैं तथा उनके इस्तीफे से यह सीट खाली हुई है. उन्होंने अपनी पसंद के उम्मीदवार पूर्व सांसद सुनील सोनी को टिकिट दिलवाई और जैसा कि उनका बयान रहा है, उन्हें सामने रखकर उन्होंने खुद यह चुनाव लड़ा है. ऐसा कहने के पीछे उनका मंतव्य मतदाताओं को यह भरोसा देना था कि सोनी तथा वे अलग-अलग नहीं है लिहाजा दक्षिण के मतदाता उन्हें वैसा ही समर्थन दें जैसा कि अब तक उन्हें भारी भरकम मतों से जीताकर देते रहे हैं. जाहिर है, बृजमोहन के खुलकर मैदान में उतरने से उनकी राजनीतिक साख दांव पर लग गई है.
दूसरी ओर कांग्रेस यह चुनाव हार भी जाती है तो उसकी सेहत पर खास अंतर नहीं आएगा. इससे एक बार पुन: सिद्ध हो जाएगा कि बृजमोहन को पराजित करना उसके बस में नहीं. कांग्रेस गत तीन दशक से , परिसीमन के पूर्व व बाद में यह सीट हारती रही है. इसलिए इस बार भी वह हार को सहज स्वीकार कर लेगी लेकिन यदि उलट-पलट परिणाम आए तो ? निश्चय ही वे चौंकाने वाले रहेंगे तथा इसका राजनीतिक संदेश दूर तक जाएगा. मसलन यदि भाजपा हार गई तो वह पार्टी से कही अधिक सांसद बृजमोहन अग्रवाल की नैतिक हार होगी. इससे प्रदेश भाजपा की राजनीति में उनकी पकड कमजोर होगी. उनके साथ पार्टी की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगेगा तथा प्रदेश में कानून-व्यवस्था के सवाल पर सरकार के प्रति जनता के असंतोष की पुष्टि हो जाएगी. इसके अलावा अब तक अपराजेय रायपुर दक्षिण पहली बार भाजपा मुक्त हो जाएगा.
और यदि कांग्रेस जीतती है तो वह भी नया इतिहास बनाएगी. प्रथमत: वह इस निर्वाचन क्षेत्र में सतत पराजय की मानसिकता से उबरेगी. द्वितीय – वह साबित करेगी कि बृजमोहन अग्रवाल अपराजेय नहीं है तथा उन्हें अथवा उनके नुमाइंदे को भी उनके क्षेत्र में हराया जा सकता है. तृतीय- इस उपचुनाव को जीतने से पार्टी का मनोबल बढ़ेगा. चुनाव प्रचार अभियान के दौरान दिखाई गई एकता की ताकत सिद्ध होगी. संगठन मजबूत होगा तथा पार्टी का प्रादेशिक नेतृत्व जो दीपक बैज के हाथ में है, पर केन्द्रीय नेतृत्व का भरोसा कायम रहेगा. इसके अलावा पार्टी के विधायकों की संख्या 35 से बढ़कर 36 हो जाएगी. अर्थात हार अथवा जीत की इन दोनों स्थितियों में रायपुर दक्षिण का उपचुनाव 2023 के विधान सभा चुनाव से अधिक महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक बन चुका है. वह दोनों पार्टियों की राजनीतिक दिशा तय करेगा. हार की स्थिति में भाजपा को इस क्षेत्र में नये नेतृत्व पर विचार करना होगा और कांग्रेस को अपने नये विजेता की पीठ आगे भी थपथपानी होगी.
इन दिनों जय-पराजय के सवाल पर चल रही ये सारी अटकलें 23 नवंबर को मतगणना के साथ ही समाप्त हो जाएंगी. सत्य सामने आ जाएगा. दरअसल तरह-तरह के अनुमानों को हवा इसलिए मिल रही हैं क्योंकि जिस भारी मतदान की अपेक्षा दोनों पार्टियां कर रही थीं, वह ध्वस्त हो चुका. 13 नवंबर को हुए मतदान में लगभग 50 प्रतिशत वोट पड़े जबकि 2023 में 60 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ था. यानी पूर्व की तुलना में दस फीसदी मतदान कम हुआ. कम मतदान से किस पार्टी को फायदा मिलेगा या किसका नुकसान होगा, इसका आकलन करना कठिन है. हालांकि अनुमानों की बाढ़ बृजमोहन अग्रवाल के पक्ष में है. शहर के बहुसंख्य प्रबुद्ध मतदाताओं का ख्याल है कि रायपुर दक्षिण से भाजपा की जीत तय है. भले ही सुनील सोनी वोटों का रिकॉर्ड न बना पाए पर बृजमोहन के दम पर वे जीतेंगे जरूर.
राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो हार-जीत की स्थिति में भी बृजमोहन के लिए यह उपचुनाव भविष्य के संकेत की तरह है. संकेत यह कि राजनीति में हवा व परिस्थितियां दोनों बदलती रहती हैं इसलिए कोई भी बात जबान से ऐसी न निकले जिसे लेकर बाद में पछताना पड़े. दूसरे, कोई भी विधान सभा क्षेत्र किसी राजनेता की जागीर नहीं हो सकती. रायपुर दक्षिण भी इनमें से एक है. कल तक वे वहां से विधायक थे , आज सुनील सोनी या आकाश शर्मा होंगे. परसों कोई और होगा. तीसरी बात-चुनाव के संदर्भ में आम तौर पर नेताओं के किए गए दावे या वायदे खोखले रहते हैं किंतु बृजमोहन अग्रवाल सरीखे जनप्रिय नेता यदि कोई बात कहते हैं तो उसकी एक अलग महत्ता होती है. लोग उस पर ध्यान देते हैं, ध्यान से सुनते है.
बहरहाल बृजमोहन अग्रवाल सहित भाजपा के अन्य दिग्गजों का दावा है कि सुनील सोनी वोटों का नया कीर्तिमान स्थापित करेंगे. उनका यह कथन कितना सच साबित होगा, 23 को स्पष्ट हो जाएगा. पर ध्यान रहे, अपने चुनावों में बृजमोहन ने स्वयं जीत के अनेक कीर्तिमान गढ़े हैं. 2008 में परिसीमन के बाद रायपुर दक्षिण विधान सभा का पहला चुनाव उन्होंने 65 हजार से अधिक वोटों से जीता था. चौथे यानी 2023 के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेता महंत रामसुंदर दास को 67 हजार से अधिक वोटों से हराकर अपने पूर्व के कीर्तिमान से आगे निकलकर नया इतिहास गढ़ा. रायपुर दक्षिण के पिछले चार विधान सभा चुनावों प्रदेश भर में यह उनकी सबसे बडी जीत थी. यही नहीं 2024 में भाजपा ने उन्हें रायपुर लोकसभा की टिकिट दी. और तब भी उन्होंने कांग्रेस के विकास उपाध्याय को पांच लाख पचहत्तर हजार से अधिक वोटों से हराकर नया रिकॉर्ड स्थापित किया. पूरे देश में , संसदीय चुनाव में दस सर्वाधिक वोटों से जीतनेवाले सांसदों में वे शामिल थे. उनकी यह जीत रायपुर निर्वाचन क्षेत्र में बरसों से मनपूर्वक सिंची गई जमीन से उपजी उनकी लोकप्रियता जीत थी. छत्तीसगढ़ के संसदीय चुनाव के इतिहास का यह अद्भुत उदाहरण है.
सुनील सोनी दक्षिण में उनकी इसी लोकप्रियता के रथ पर सवार हैं. उम्मीदवार के चयन के समय वे भाजपा संगठन से कही अधिक बृजमोहन की पसंद के व्यक्ति थे. अधिकृत तौर पर उनके नाम की घोषणा के बाद भाजपा के एक खेमे में तीव्र असंतोष फैला था. कह सकते हैं इसका परिणाम कम मतदान के रूप में सामने आया. जाहिर है विरोधी नेताओं ने न तो चुनाव में दिलचस्पी ली और न ही मतदाताओं के मतदान के लिए प्रेरित किया. वे केवल दिखावा करते रहे. ऐसी स्थिति में विधान सभा चुनाव पहली बार लड़ रहे सुनील सोनी रायपुर दक्षिण में कोई करिश्मा कर पाएंगे? यकीनन नहीं. यदि वे जीत भी जाते हैं तो वह जीत उनकी कम बृजमोहन की अधिक होगी. वैसे भी 2019 के लोकसभा चुनाव में सोनी की बंपर वोटों से जीत का श्रेय मूलत: प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को था. छत्तीसगढ में मोदी का चेहरा 2014 , 2019 व 2024 के चुनावी दौर में खूब चला. इसलिए सुनील सोनी की संसदीय चुनाव में जीत क्रांतिकारी जीत नहीं थी और न ही वह व्यक्तिगत लोकप्रियता की जीत थी. रायपुर दक्षिण के इस चुनाव में भी सोनी की यही स्थिति है. चुनाव में उन्हें सबसे बड़ा आधार क्षेत्र में बृजमोहन अग्रवाल की अपार लोकप्रियता का रहा है.
राजनीतिक दृष्टि से यह सवाल सहज है कि क्या बृजमोहन ने अघोषित तौर पर पर उपचुनाव की जिम्मेदारी लेकर कोई गलती की ? दरअसल यह सच सामने है कि वे रायपुर दक्षिण के मोह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं जबकि उन्हें अपनी राजनीति की धार तेज करने के लिए उपचुनाव की जिम्मेदारी का बोझ अपने सिर पर उठाने की आवश्यकता नहीं थी. यह काम संगठन के नेताओं पर छोड देना चाहिए था. वे आराम से इससे मुक्त रह सकते थे. किन्तु उनकी दिलचस्पी देखकर नेतृत्व ने पूरा भार उन पर डाल दिया तथा खुली छूट दे दी. यद्यपि बृजमोहन तथा उनकी टीम ने एक चुनौती के बतौर इस उपचुनाव को लिया तथा सघन प्रचार के साथ संसाधनों की पूरी ताकत झोंक दी. लेकिन इसके बावजूद मतदाता उदासीन बने रहे, घर से बाहर नहीं निकले. और अब यदि उपचुनाव का नतीजा अपेक्षा के अनुरूप नहीं आया तो क्या वह बृजमोहन की जमीनी पकड़ के कमजोर पड़ने का संकेत न होगा?
साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार हैं)