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स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों बाद अब भारतीय संसद में प्रधानमंत्री मोदी ‘राजदण्ड सेंगोल ‘ स्थापित करेंगे

- सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
तो तय हुआ है कि स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों बाद अब भारतीय संसद में ‘राजदण्ड’ स्थापित होगा। प्रधानमंत्री नए संसद के उद्घाटन के दिन तमिलनाडु के एक मठ के संत से इसे प्राप्त करेंगे और लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट इसे स्थापित किया जाएगा।
राजदण्ड का यह स्वरूप सम्भवतः चोल शासकों के समय से चला आ रहा है। “शिव का अनुयायी राजा स्वर्ग जैसा शासन करे” के पवित्र भाव के साथ सम्राट इस पवित्र सेंगोल को धारण करते थे। इसमें एक बड़े दण्ड के ऊपर नन्दी महाराज की आकृति होती है, जैसे वे शासक पर दृष्टि रख रहे हों। या शासक में भगवान शिव का अंश होने की सनातन मान्यता… फिर बिना नन्दी महाराज के कोई काम कैसे सफल होगा? दण्ड पर नन्दी महाराज का आसीन होना वस्तुतः धर्म का आसीन होना है।
भारतीय लोकतंत्र अपनी पचहत्तर वर्षों की यात्रा में यदि कहीं विफल रहा है तो दण्ड का भय स्थापित करने में विफल रहा है। सत्य यही है कि किसी को राजदण्ड का भय नहीं। स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता में कोई अंतर नहीं रह गया है। ऐसे में सांकेतिक तौर पर ही सही, राजदण्ड की स्थापना एक सुखद संकेत तो है ही…
दण्ड का भय केवल प्रजा के लिए ही आवश्यक नहीं है, यह भय सत्ता को भी रहना चाहिये। प्राचीन दंडनीति के अनुसार नैतिकता और विधि का पालन सर्वोपरि होता है, जो दण्डित और दण्डधारी दोनों पर समान रूप से लागू होता है।
सत्ता के प्रमुख केंद्र पर धर्म का अंकुश होना ही चाहिये, अन्यथा वह अधर्मी हो जाएगी। यही कारण है कि बनाने वालों ने दण्ड के ऊपर नन्दी की मूर्ति लगाई होगी। धर्म सबसे ऊपर है। सेंगोल राजदण्ड नहीं, वस्तुतः धर्मदण्ड है।
सेंगोल का अर्थ होता है धर्म, सत्य और निष्ठा! इस राष्ट्र की सत्ता को इन तीनों मूल्यों की कितनी आवश्यकता है, यह सब समझ रहे हैं। शायद इसीलिए संसद में इस शक्ति के प्रतीक दण्ड का स्थापित होना अत्यंत शुभ लग रहा है।
यूँ तो इसे स्वतंत्रता के समय सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक रूप में माउंटबेटन द्वारा पण्डित नेहरू को दिए जाने की स्मृति में स्थापित करने की बात हो रही है। तब पीताम्बर पहने नेहरू ने भी दक्षिण के किसी संत के हाथों इसे प्राप्त किया था। हालांकि तब इसे प्रयागराज के किसी संग्रहालय में रख दिया गया था। इसे इसके उचित स्थान पर अब लाया जा रहा है।
कुछ संकेत बड़े सुखद होते हैं। अपने हर निर्णय को जन जन से जोड़ देने में माहिर प्रधानमंत्री से आशा है कि वे इस “भारत की सत्ता द्वारा धर्मदण्ड धारण करने के” पवित्र भाव को भी जन जन से जोड़ देंगे। संसार के इस एकमात्र धर्मिक देश का धर्म जगत को स्पष्ट ज्ञात होना चाहिये।

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।

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