www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

पुस्कार मतलब सुख और दुश्मन दोनों एक साथ

-दयानंद पांडेय की कलम से-

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India:Dayanand Pandey:
कोई भी पुस्कार किसी को सुख और दुश्मन दोनों एक साथ देता है। नालायकों , तिकड़मबाज़ों और बनावटी लेखकों की सेहत पर इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ता। पर लिखने वाले को बहुत फ़र्क पड़ता है। ऐसे गोया स्वाभिमान का अपमान से समझौता हो गया हो। सारी रचनात्मकता और सारी मेहनत अपमानित हो जाती है इन जलनखोर जीवों की कुढ़न से। लेकिन सर्वदा से ही यह सब कुछ होता आया है। कोई नई बात नहीं है। रवींद्रनाथ टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार मिलने से कुछ लोग आज तक कुढ़ते और चिढ़ते मिलते हैं। तो कोई क्या कर सकता है।

क्या तो अंगरेजों की पिट्ठूगीरी कर यह नोबेल टैगोर ने झटक लिया। यह विघ्न संतोषी लोग भूल जाते हैं कि 3 जून, साल 1915 को ब्रिटिश सरकार ने टैगोर को नाइटहुड की उपाधि दी थी। लेकिन, 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोधस्वरूप उन्हों ने नाइटहुड की उपाधि ब्रिटिश सरकार को लौटा दी थी। सचमुच में। यह वही टैगोर हैं जिन की तमाम मूर्तियां लगभग यही लोग पश्चिम बंगाल में तोड़ डालते हैं। सत्तर के दशक की बात है यह। यह वही समय है जब बेटों के खून में भात सान कर मां को खिलाया गया। साहित्य अकादमी वापसी के नौटंकीकार लेकिन यह सारे तथ्य दबा देते हैं। साहित्य अकादमी वापस करने का जैसे ज्वार उठा था। लेकिन सचमुच में किसी एक ने वापस नहीं की। सिर्फ़ और सिर्फ़ ऐलान किया। मैं ने तब भी इन नौटंकीबाजों से पूछा था , लिख कर पूछा था। आज भी पूछता हूं , साहित्य अकादमी लौटाने वाले यह सूरमा लेखक आगे फिर कौन सा पुरस्कार ले सकेंगे ? सेठों के पुरस्कार ज्ञानपीठ , व्यास वगैरह ? इन पुरस्कारों में भी कारपोरेट की आवारा पूंजी वास करती है । बुकर , नोबेल वगैरह ? वहां तक दौड़ नहीं है । और फिर अमरीकापरस्त हैं , साम्राज्यवादी आदि हैं यह सब अलग । बाक़ी तो ग़ालिब के एक मिसरे में जो कहूं कि ; हम सुख़नफ़हम हैं ‘ग़ालिब’ के तरफ़दार नहीं !

हां , सार्त्र ने भी कभी नोबेल लौटाया था। छाती चौड़ी कर लौटाया था। एक सुचिंतित पत्र लिख कर लौटाया था , अपनी गंभीर असहमतियों का ज़िक्र करते हुए। कहा था कि अभी की स्थितियों में लेनिन पुरस्कार भी मिलता तो मैं लौटा देता। सार्त्र की लंबी चिट्ठी में अपनी असहमतियों का विवरण बड़ी शालीनता से उपस्थित था। लिखा था सार्त्र ने : यह नितांत मेरा अपना तौर-तरीका है और इसमें अन्य विजेताओं के प्रति किसी भी तरह का निंदा भाव नहीं. यह मेरा सौभाग्य है कि ऐसे कई सम्मानित लोगों से मेरा परिचय है और मैं उन्हें आदर तथा प्रशंसा की दृष्टि से देखता हूँ.

सार्त्र ने बहुत साफ़ यह भी लिखा था :

अंत में, मैं उस देय निधि के प्रश्न पर बात करूँगा. पुरस्कृत व्यक्ति के लिए यह भारस्वरूप है. अकादमी समादर-सत्कार के साथ भारी राशि अपने विजेताओं को देती है. यह एक समस्या है जो मुझे सालती है. अब या तो कोई इस राशि को स्वीकार करे और इस निधि को अपनी संस्थाओं और आंदोलनों पर लगाने को अधिक हितकारी समझे –जैसा कि मैं लन्दन में बनी रंग-भेद कमिटी को लेकर सोचता हूँ; या फिर कोई अपने उदार सिद्धांतों की खातिर इस राशि को लेने से इंकार कर दे, जो ऐसे वंचितों के समर्थन में काम आती. लेकिन मुझे यह झूठ-मूठ की समस्या लगती है. ज़ाहिर है मैं 250,000 क्राउंस की क़ुरबानी दे सकता हूँ क्योंकि मैं खुद को एक संस्था में रूपांतरित नहीं कर सकता –चाहे वह पूर्व हो या पश्चिम. पर किसी को यह कहने का हक़ भी नहीं है कि 250,000 क्राउंस मैं यूं ही कुर्बान कर दूँ जो केवल मेरे अपने नहीं हैं बल्कि मेरे सभी कॉमरेड दोस्तों और मेरी विचारधारा से भी तालुक्क रखते हैं.

इसलिए ये दोनों बातें- पुरस्कार लेना या इससे इंकार करना, मेरे लिए तकलीफ़देह है.

इस पैगाम के साथ मैं यह बात यहीं समाप्त करता हूँ कि स्वीडिश जनता के साथ मेरी पूर्ण सहानुभूति है और मैं उन से इत्तेफ़ाक रखता हूँ.

लेखक बड़ा होता है सार्त्र और टैगोर की तरह तो उस की बात में , असहमति में भी शालीनता और भाषा की मर्यादा साफ़ दिखती है। पानी की तरह। बाक़ी तो ग़ालिब के उस एक मिसरे को जो फिर दोहराऊं कि ; हम सुख़नफ़हम हैं ‘ग़ालिब’ के तरफ़दार नहीं ! थोड़ा कहना , बहुत समझना ! आमीन !

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Leave A Reply

Your email address will not be published.