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लोकतंत्र का ही चीरहरण करती राजनैतिक पार्टियाँ

जनप्रतिनिधि पद के लिए न कोई योग्यता है न कुछ

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Positive India:Dr.Chandrakant Wagh:लोकतंत्र के नाम से लोकतंत्र का ही चीरहरण खुले आम हो रहा है। वहीवहीं राजनीति के शतरंज के तथाकथित खिलाड़ियों द्वारा बेजा फायदा उठाया जा रहा है । कुल मिलाकर पूरी राजनीति अपना व अपने दल के हित को ध्यान रखकर ही की जाती है। इसमे देश के हित व नुकसान को कभी ध्यान नही दिया जाता है, न कभी चिंता की जाती हैं । जनप्रतिनिधि पद के लिए न कोई योग्यता है न कुछ । अब धीरे-धीरे ये लोकतंत्र के मंदिर कुछ परिवार व पैसे वालो के कब्जे मे आ चुके है ।
इससे कोई इंकार नही कर सकता । आज ये चुनाव इतने महंगे हो गए कि जनप्रतिनिधि की पांच साल की तनख्वाह भी कम पड़ जाये । इतनी सेवा कहाँ कूट कूट कर भरी है इन महानुभावो मे समझ मे नही आता । हालात तो ये है, अगर इस पद पर तनख्वाह भी न रहे तो भी ये हंसते हंसते हुए सेवा के लिए उपलब्ध हो जाएगे । पर ऐसा करके ये देश को कितना नुकसान पहुंचाते है, इससे पूरा देश वाकिफ है ।
अपने फायदे के लिए दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ना तो आम है । चुनाव आयोग को तो इस पर सख्ती से कार्यवाही करनी चाहिए । क्यो कोई दो चुनाव मे लड़े? अगर वो नेता जीती हुई सीट खाली करता है तो उक्त पूरे चुनाव का खर्च उसी नेता से ही लिया जाना चाहिए । इनके लिए ये तो मात्र राजनीति हो गई पर इसमें देश का
करोड़ो का संसाधन, जो विकास कार्यो मे लगना चाहिए, वो संसाधन इनकी राजनीति की बलि चढ़ जाता है ।
राजनैतिक जमात एक ऐसी जमात है जिन्हें न दल, न देश दोनो से कोई लेना-देना नही है । इन्हे फिक्र है तो अपनी सियासत से। अपनी चमड़ी सुरक्षित रहे,भले देश भाड़ मे जाये । जब ये किसी मलाई वाले पद मे रहते है तो चुनाव लड़ने से इंकार कर देते है । अगर हार जाते है और खाली रहते है तो देश भक्ति का जज्बा सर चढ़ कर बोलता है । ऐसे समय ये अपने चुन्नु मुन्नु कार्यकर्ताओ से टिकट की मांग हाईकमान से करवाते है ।
आज तक यह समझ में नही आया कि चुनाव लड़ने के लिए बार बार पैसा कहाँ से आता है ? वही कुछ नेता पद मे रहते हुए, जैसे अभी कोई व्यक्ति विधायक है और अभी लोकसभा का चुनाव लड़ रहा है; अगर वो जीत गया और सांसद बन गया तो फिर तीन माह मे वहां का पद रिक्त हो जायेगा । यहां तो उनकी महत्वाकांक्षा पूरी हो जाएगी । पर इसके पहले इन्होंने कभी ये औपचारिकता पूरी की कि जिस क्षेत्र ने उन पर विश्वास दिखाया क्या चुनाव लड़ने के पहले उन्हे विश्वास मे लिया ? इनके इस तरह के राजनीति के खेल मे जनता क्यो खिलौना बनें ? इसके पहले भी दूसरे दल के एक नेता ने चुनाव लड़ने से इसीलिए इंकार किया था क्योंकि वे मंत्री थे । इन राजनेताओं की राजनीति के बिसात का खर्च देश व जनता क्यो उठाये ? दूसरी बात अगर ये चुनाव हार जाते है तो इनमे इतना नैतिक साहस है कि जनता के अविश्वास को ध्यान मे रखकर इस्तीफा दें? ऐसा कुछ नही होता है।
संविधान के लचीलेपन का ही ये लोग फायदा उठाते है। देश की जनता ठगा सा महसूस कर रही है । इस पर अब ध्यान देने की नितांत आवश्यकता है। चुनाव मे अब व्यापक परिवर्तन की गुंजाइश है अन्यथा लोगो का रहा सहा लोकतंत्र के लिए विश्वास भी खत्म हो जाएगा । लेखक:डा.चंद्रकांत वाघ(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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