Positive India:Vishal Jha:
आचार्य धीरेंद्र शास्त्री जी जब प्लॉट वाला बयान दे रहे थे, मैं कथा लाइव सुन रहा था। इस बयान पर मुझे बहुत दुख हुआ। एक प्रकार से सभ्य शब्दों के सहारे कहा गया यह एक अपशब्द ही है। मैं स्वयं धीरेन्द्र शास्त्री जी से ज्यादा पढ़ा-लिखा और समझदार हूं। मुझे अच्छी तरह पता है उन्हें यह बयान नहीं देना चाहिए। और उनके इस बयान को किसी भी कोण से जस्टिफाई नहीं किया जा सकता। बयान कई कथा पुरानी है। सुनते ही मेरे मन में आया कि मीडिया इसका शल्य उपचार अवश्य करेगा। लेकिन यह सेगमेंट तब दूर दूर तक कहीं चर्चा में नहीं आई। मुझे लगा धीरेंद्र शास्त्री जी के कई ऐसे अयोग्य बयान हैं, मीडिया कौन से बयान चुने और कौन छोड़े, शायद इस कारण बात दब गई। पर अब यह बयान रंग ले चुका है।
ऑडियोलॉजी के बाद मीडिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है टीआरपी। मीडिया जब किसी मुद्दे के सकारात्मक हिस्से पर कार्य करता है तब वह अपनी पूरी ताकत से प्रशंसा कर टीआरपी अपने हिस्से करता है। यही कार्य नकारात्मक हिस्से पर करते हुए भी करता है। मीडिया का एक खेमा प्लॉट वाले बयान पर टीआरपी लेना शुरू कर दिया है। फिर भी अभी सकारात्मक हिस्सा भारी चल रहा है। और बयान की जिस स्तर पर आलोचना होनी चाहिए, नहीं हो रही। लेकिन अब प्रश्न है, क्या यह बयान वापस होकर धीरेंद्र शास्त्री जी के पास नहीं पहुंचा होगा, कि इस पर चौतरफा विवाद आरंभ हो गया है? अवश्य पहुंचा होगा। क्योंकि इस मुद्दे को कुछ मेंस्ट्रीम मीडिया ने भी कवर किया है। तो फिर प्रश्न कि आचार्य धीरेन्द्र शास्त्री के मन में अपने ही इस बयान पर वापस क्या विचार आया होगा?
नोएडा वाले कथा क्रम में मीडिया में शास्त्रीजी के साक्षात्कार का एक और दौर आरंभ हुआ। साक्षात्कार का यह दौर बहुत ही अलग दिखा। मुझे स्पष्ट दिखा कि पिछले तमाम कथाओं के दरमियान लिए गए साक्षात्कार में शास्त्री जी के चेहरे पर जो चुलबुलाहट थी वह इस बार नहीं दिखी। किसी भी चैनल पर नहीं दिखी। चाहे इंटरव्यू सुधीर चौधरी ने लिए हों अथवा रुबिका लियाकत ने। रूबिका लियाकत की ली गई इंटरव्यू मन में छप जाती है। क्योंकि इस बार धीरेंद्र शास्त्री जी जितने शांत लहजे में उत्तर दे रहे थे, रुबिका लियाकत भी उतने ही शांत भाव से प्रश्न भी कर रही थी। बिना दुनिया भर की भूमिका बांधे सीधे प्रश्न। इंटरव्यू देख कर मुझे बहुत फील हुआ कि आचार्य धीरेन्द्र शास्त्री इस बार बोलने में इतनी शालीनता साध रहे थे कि कभी-कभी उनकी बोली साउंडलेस हो जाती थी।
इसी दरमियान रुबिका लियाकत ने एक प्रश्न किया कि जब आप घर में फुर्सत में होते हैं तो मोबाइल में क्या देखते हैं? शास्त्री जी ने उत्तर दिया मैं स्वयं को ही देखता रहता हूं और फिर कभी मुझे लगता है कि मुझे ये बयान नहीं देना चाहिए था, मुझे अमुक बात नहीं बोलनी चाहिए थी, इससे लोग क्या सीखेंगे, गलत संदेश जाएगा। निश्चित तौर पर प्लाट वाला बयान जब धीरेंद्र शास्त्री के सामने वापस लौट कर गया होगा, विवादों के कारण उन्हें महसूस हो गया होगा कि यह बयान अनुचित निकल गया। धीरेंद्र शास्त्री जी देहात की माटी से पोषित हुए हैं। उनकी वाणी में घर में मां-दादी द्वारा बोले गए शब्दों की स्पष्ट पैठ होती है। ठठरी शब्द ठीक इसी प्रकार के हैं। खुले मंच से किसी के मरने की बद्दुआ कर देना अपशब्द ही तो है। लेकिन जिस देहाती माटी में उन्होंने अपने इस शब्द को फ्रेम किया हुआ है, यह शब्द विवाद की सीमा से पार हो चुका है। लेकिन जिसके पास तनिक भी एकेडमिक ज्ञान होगा, वह ना तो ठठरी शब्द का इस्तेमाल करेगा और ना ही प्लॉट। एकेडमिक फ्रेम की समझ शास्त्री जी के पास मेरे जितना भी नहीं है, मैं पहले पैरा में लिख चुका हूं। वे अब एकेडमिक ज्ञान सीख रहे हैं।
तो यह विचार करने योग्य है कि प्लॉट वाला बयान देते वक्त क्या शास्त्री जी को इस एकेडमिक फ्रेम कि समझ थी, कि यह बयान अपराधिक सिद्ध होगा? इसी आधार पर तय होगा कि शास्त्री जी से अपराध हुई है या भूल। हम लोगों के दादी के झगड़ने के शब्दों में तमाम ऐसे बयान मैं आज भी सुनता हूं, जो स्त्रियों के लिए वस्तुसूचक होती हैं। क्या शास्त्री जी अपने देहाती संस्कार के कारण इसी फ्रेम के शिकार हैं। धीरेंद्र शास्त्री जी अब धीरे-धीरे अपने ज्ञान के लूपहोल को समझने लगे हैं। वे अब परिपक्व होने लगे हैं। उनकी परिपक्वता उनमें शालीनता ला रही है। लेकिन उनकी इस परिपक्वता का खामियाजा अब स्पष्ट दिखने लगा है। लगता है जैसे उनकी वाकपटुता धीरे-धीरे गुम होने वाली है, वे अब कम बोलने लगेंगे, वे अब धीरे बोलने लगेंगे। उनकी मुखरता ही उनके लक्ष्य की ताकत है।
उनसे अच्छा पढ़ा लिखा और समझदार लोगों की सवा सौ करोड़ हिंदुओं वाले भारत में कोई कमी नहीं है। यह भी सत्य है कि हिंदू राष्ट्र की लालसा लिए अपने मन में भी ऐसे असंख्य लोग होंगे, जो शास्त्रीजी से बहुत अच्छा बोलते होंगे, हर एकेडमिक फ्रेम में उनकी बात बैठती होगी, कहीं कोई अपराधिक भूल होने की गुंजाइश भी नहीं। लेकिन प्रश्न, मुझे इससे क्या फायदा? मैं तो तब प्रसन्न होउंगा, जब हिंदू राष्ट्र का झंडा कोई सबसे ऊंचा उठा ले। मैं भी अच्छा बोल सकता हूं, तो आज मैं बोलूं तो कितने लोग सुनेंगे? हां इतनी बात अवश्य कहूंगा अगर मुझसे गलती हुई है तो मुझे इसका भान हो जाए कि मैंने गलती की है और दूसरा मैं इसके लिए सदा सुधार उन्मुख रहूँ।
साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)