संसद में आम्बेडकर को लेकर चल रही फ़र्ज़ी खींचतान बहुत मनोरंजक है।
-सुशोभित की कलम से-
Positive India:Sushobhit-:
वास्तव में, गांधी और सावरकर दोनों ही एक बिंदु पर एकमत थे कि दलित-प्रश्न पर हिन्दुओं में टूट नहीं आनी चाहिए। वे हरिजनों को एक व्यापक हिन्दू-फ़ोल्ड के भीतर रखना चाहते थे। बड़ा अंतर यह था कि गांधी मुसलमानों को भी भारतीय-राष्ट्र का अनिवार्य हिस्सा समझते थे, जबकि सावरकर का मत था कि हिन्दू और मुसलमान दो भिन्न राष्ट्र हैं। इससे हिन्द स्वराज्य (गांधी) बनाम हिन्दुत्व (सावरकर) का द्वैत उत्पन्न होता है। किन्तु दलितों-पिछड़ों का एक व्यापक हिन्दू-पहचान में पुनर्वास दोनों का ही अभिप्रेत था।
आम्बेडकर ने इसमें एक तीसरा कोण उत्पन्न किया। उन्होंने अछूतों के लिए पृथक से अधिकारों की मांग की। गांधी और सावरकर दोनों ही इससे सहज नहीं हो सकते थे। गांधी के मॉडल में ढली कांग्रेस और सावरकर के मॉडल में ढली भाजपा आज जब दलित-पिछड़े वोटों के लिए आम्बेडकर का नामजप करती हैं तो बड़ी हास्यप्रद मालूम होती हैं। आम्बेडकर का डीएनए इन दोनों से जुदा था।
अगर आम्बेडकर ने अपने समर्थकों के साथ इस्लाम क़बूल कर लिया होता तो भारतीय-राजनीति में भूचाल आ जाता। किन्तु उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इससे नवबौद्धों के रूप में एक नई राजनैतिक-ताक़त की उत्पत्ति हुई। बहुजन राजनीति का उदय हुआ। अगर हम स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति को देखें तो पाएँगे कि 1947 से 1989 तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा। 1989 से मण्डल-कमण्डल के उदय से बहुजन और हिन्दुत्व राजनीति को बल मिला। 2014 के बाद से हिन्दुत्व की राजनीति केंद्र में आ गई है। आज प्रश्न यह है कि बहुजन किसके साथ जाएँगे? इसी को लेकर सारी लड़ाई है।
राहुल गांधी जब संसद में मनुस्मृति का हवाला देते हैं तो यह अकारण नहीं है। बहुजनों के लिए मनुवाद से बड़ा लांछन कोई दूसरा नहीं। किन्तु ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस सवर्णों की पार्टी रही है और दलित-पिछड़े उस पर भरोसा नहीं करते। भाजपा ने इधर दलित, पिछड़े, आदिवासियों को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पदों पर बिठाकर दलित-पिछड़े-वोटों पर अपना मज़बूत दावा पेश किया है। आरएसएस के ग्रासरूट स्वयंसेवक समाज के निचले तबक़े पर अपना प्रभाव रखते हैं। वे सावरकर की इस इच्छा को पूरा करना चाहते हैं कि बहुजन हिन्दुओं के साथ बने रहें।
बँटेंगे तो कटेंगे का नारा वास्तव में सवर्ण हिन्दुओं के लिए उतना नहीं है, जितना कि वह बहुजनों के लिए है कि हमारे साथ रहो तो सुरक्षित रहोगे। जबकि कांग्रेस चाहती है कि धर्म ने जिनको जोड़ा है, उनको जाति के नाम पर तोड़ दे। मुसलमानों, दलित, पिछड़ा और सेकुलर-सवर्णों का गठजोड़ उसकी चुनावी-वैतरणी पार लगाएगा। वहीं हिन्दू कोड बिल के दिशानिर्देशों में सनातनियों और आर्यसमाजियों के साथ ही बौद्धों और जैनियों को भी सम्मिलित किया गया था। इस आधार पर भाजपा नवबौद्धों को भी अपना ही मानना चाहती है। कि माना तुम हमसे नाराज़ हो, पर हमारे साथ बने रहो, हम तुम्हारा बेहतर ख़्याल रखेंगे।
बाबासाहेब आज होते तो संसद में इन वीरबालकों का यह पाखण्डपूर्ण व्यवहार देखकर मुस्कराते और भारत की ऐतिहासिक-राजनीति पर ऐसी तगड़ी तक़रीर पेश करते कि वे बग़लें झाँकने लग जाते।
साभार: सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)