Positive India:Sushobhit:
राम ने वनगमन किया तो संगिनी साथ गईं। सीताहरण हुआ तो उनके लिए रण भी किया। अवधपुरी लौटकर फिर लोकापवाद के भय से उसी संगिनी का परित्याग किया या नहीं किया, वह पृथक से विवाद का विषय है, उसमें नहीं जाऊँगा। अनेकान्त के रचाव में दोनों ही कथाएँ मिलती हैं! किंतु लक्ष्मण उर्मिला को त्यागकर राम के साथ वन गए, यह तो निश्चित है। राजधर्म और कुलचेतना को व्यक्ति की निजी हानि पर अधिक महत्व दिया गया, यह मानदण्ड तो स्थापित ही हुआ।
बुद्ध तो जैसे मन में चोर लेकर, अंधकार में पत्नी और पुत्र को त्यागकर गए! वो महाभिनिष्क्रमण तो नि:शंक है। सम्बोधि पाकर फिर लौटे भी। उपालम्भ सुनने को बैठे किंतु यशोधरा मौन रहीं। वैसे ही जैसे कोई त्यागा गया प्रिय मौन रहने का निश्चय कर लेता है। यह उसका रोष भी है, प्रतिकार भी है! और अब कहने को है भी क्या, अब कहके भी क्या होगा, इस भावना की अभिव्यंजना भी। कथा है कि बाद में तथागत ने यशोधरा और राहुल दोनों को धम्म की दीक्षा दी।
कृष्ण की कथा इसमें सबसे रुचिकर है। कृष्ण से बड़ा निस्संग कौन हुआ? रण में, वन में, भवन में, भुवन में, प्रणय में, कलह में- वे एकाकी ही हैं, ठीक वैसे, जैसे कोई विराट-रूप सर्वथा असंग होता है। ब्रज को छोड़ा तो लौटकर नहीं गए। किंतु अपने महाप्रियकर उद्धव को वहाँ अवश्य भेजा। उद्धव ने वहाँ गोपियों के उपालम्भ को सहा। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि सूरदास ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण का साथ एक ही जगह छोड़ा, और वह है ‘भ्रमरगीत।’ किंतु कृष्ण को इससे क्या? यह ब्रज के प्रति उनका दायित्व था, जो उन्होंने निभाया। गोपियों को कृष्ण की असम्भवता का क्लेश जीना था सो उन्होंने जीया! और उद्धव ने कृष्ण के स्थान पर गोपियों का उलाहना सुनना था सो उन्होंने सुना।
किसी ना किसी को तो सुनना ही था! हर कोई यशोधरा की तरह अपने आहत अभिमान में मौन नहीं होता। हर कोई उर्मिला की तरह अपनी निष्ठा में प्रकृतिस्थ नहीं होता। प्रेम के यदि अनेक रूप होते हैं तो वियोग के उससे अधिक ही हैं।
लोक जिसे गाथा की तरह बाँचता है, काव्य उसे ही एक व्यक्तिनिष्ठ संवेदना से पढ़ता है। इसलिए रामकथा और बुद्धकथा में जो उर्मिला और यशोधरा अलक्षित रह गईं, उन्हें मैथिलीशरण गुप्त ने अपने प्रबंध की नायिकाएँ स्वीकारा। गोपियों के लिए सूरदास ने भ्रमरगीत रचा और अपने काव्य में पहली बार अपने ईष्ट के प्रतिकूल प्रतिवाद किया। कनुप्रिया के अंतर्मन को धर्मवीर भारती ने वाणी दी। तिष्यरक्षिता जैसी कलंकिता को भी श्रीनरेश मेहता ने अपने गल्प में स्मरण रखा।
कविता की अगर कोई परिभाषा हो सकती है तो वो यही है कि जिस-जिसको लोक, धर्म, सत्ता, दायित्व और औचित्य-निर्वाह के मानदण्ड त्याग देते हैं, उसे काव्य प्रश्रय देता है। कविता सबसे बड़ी शरणागति है। उसमें संसार भर की उपेक्षित, परित्यक्त, विस्मृत चीज़ों को जगह दी गई है। लोक से कविता का खटराग भी इसीलिए चलता है। लोक काव्य को प्रणाम करता है, औचित्य-निर्वहन का आख्यान हो तो उसे आदर भी देता है, किंतु लोक और काव्य दोनों ही जानते हैं कि उनके नियम पृथक हैं, उनके अभीष्ट में अंतर है।
लोक का अभीष्ट समाज है, काव्य का अभीष्ट व्यक्ति!
जो भी त्यागकर गया, एक दिन लौटकर आया- प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से! उसने इसे अपने व्यक्तित्व की एक विधा माना, यह नहीं समझा कि जिसे त्याग ही दिया, उसके लिए कोई भी उपकार अब तिरस्कार ही है! त्यागने वाला लौटकर आता है तो त्यागा गया इससे क्लेश ही पाता है! तुम ना ही आते तो ठीक था– यह कहता है! प्यार की पूर्ति दया और सदाशयता से नहीं हो सकती!
‘सखि, वे मुझसे कहकर जाते’ – यशोधरा के इस आर्तनाद में उन सभी व्यक्तियों का क्रंदन गूंज उठा है, जिसे लोक, नीति और निष्ठा के ग्रंथ सुन नहीं सकते थे। कविता ही जिसकी वर्णमाला रच सकती थी। यह कटाक्ष कि अव्वल तो जाना ही क्यों? चेतना के इस आत्मीय प्रसंग की हत्या करना ही क्यों, जो जीवन में दुर्लभ है। किंतु जाना ही था, तो कहकर जाते, विदा का गौरव मेरे हिस्से में लिखते, मैं रोकती नहीं। इसलिए नहीं कि रोकना चाहती नहीं थी, बल्कि इसलिए कि जिसको जाना ही हो, उसे तो ब्रह्मा भी रोक नहीं सकते! और कोमलता का जो सम्बंध हृदय की वर्तनी से जुड़ा था, उसकी रक्षा आग्रह से कैसे होती? किंतु कहकर जाते! नींद से जगाकर बतलाते कि अब जाता हूँ, अब मिलना ना होगा, यह सम्बंध यहाँ समाप्त हुआ! इसका कारण मत पूछना और इससे जो शोक हो उसके लिए क्षमा कर देना, अलबत्ता क्षमायाचनाओं से कौन-से दु:ख विरल हुए हैं? किंतु अब यह विदा है!
एक पूरी पृथ्वी उन लोगों की है, जिन्हें त्याग दिया गया।
अपार जनसमूह में उनके चेहरे गुम हो जाते हैं। एक कविता ही उन्हें आलोकित करती है।
तब आप यह भी कह सकते हैं कि पृथक से एक पृथ्वी उस कविता की भी है, जिसमें सभी भुला दिए गए व्यक्तियों की अंतिम शरणगाह!
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार हैं)