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कभी नहीं जन्मे, कभी मरे नहीं…

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit-:
19 जनवरी

इस पृथ्वी पर, और इस देह में, रजनीश के अंतिम दिन किसी नियति के आवेग में 19 जनवरी 1990 की तारीख़ की ओर खिंचे चले गए थे।

4 जनवरी 1987 को वे अमेरिका और विश्व-यात्रा से लौटकर अपने जीवन का अंतिम अंक खेलने फिर पुणे पहुँचे। वही पुणे, जहाँ वे आचार्य-वेश में कितनी बार आए थे, गीता पर बोले थे। ​फिर जहाँ वे 1974 में अपना आश्रम बसाने आए और आठ वर्षों तक यहीं रहे। फिर जिसे छोड़कर अमेरिका गए तो ऐसे कि अब फिर आना न होगा। उसी पुणे में वे एक अंतिम बार फिर लौटकर आए थे।

अंत के इन तीन वर्षों में रजनीश ने कोई चार से पाँच बार नाम बदले, तीन नई ध्यान-विधियाँ आविष्कृत कीं, एक इनर सर्कल बनाया, पूरे आश्रम को री-डिज़ाइन करवाया और उसे स्याह काले रंग से पुतवा दिया। उन्होंने आश्रम के समीप स्थित नाला पार्क को ज़ेन गार्डन की तरह विकसित करवाया, जो कालान्तर में ओशो तीर्थ कहलाया और जहाँ रजनीश की एक मूर्ति स्थापित की गई। इसी कालखण्ड में रजनीश ने स्वयं को गौतम बुद्ध की चेतना का वाहक घोषित कर सनसनी फैलाई और हमेशा की तरह आलोचना और प्रवाद के पात्र बने।

इस कालावधि में रजनीश मुख्यतया ज़ेन पर बोले। मानो चराग़ की आख़िरी लौ त्वरा से फड़फड़ाई हो, उनके डिस्कोर्स निरंतर लम्बे होते चले गए। 4 फ़रवरी 1989 को हुआ एक डिस्कोर्स तो पूरे 4 घंटे 6 मिनट चला। बाद में रजनीश ने कहा कि मेरा समय का बोध क्षीण हो गया है, इसलिए बोलता चला गया। शायद किसी दिन पूरी रात बोलता रहूँ और सुबह हो जाए।

इन वर्षों में रजनीश के द्वारा दिए डिस्कोर्स से 48 नई किताबें बनकर तैयार हुईं और ज़ाहिर है वो तमाम अंग्रेज़ी में हैं।

उन्होंने अपनी कुछ पुरानी हिन्दी किताबों के नए संस्करण भी निकाले और उनमें बड़े संकेतपूर्ण उपशीर्षक जोड़ दिए, जैसे- ‘सुन सको तो सुनो, कुछ देर और पुकारूंगा, फिर चला जाऊँगा…’

इन्हीं वर्षों में रजनीश ने अपने नाम के साथ जुड़ी भगवान उपाधि को विदा कर दिया। ज़ेन पर उस समय चल रही प्रवचनमालाओं में अकसर मास्टर के लिए ओशो शब्द का प्रयोग होता था। इससे प्रेरित होकर 15 सितम्बर 1989 को उन्होंने ओशो नाम अपना लिया। भगवान, श्री और रजनीश तीनों तिरोहित हो गए। अब यह ओशो नाम ही रजनीश का पर्याय बन गया!

10 अप्रैल 1989 को रजनीश ने अपने जीवन का अंतिम सार्वजनिक व्याख्यान दिया। यह ‘द ज़ेन मैनिफ़ेस्टो’ पुस्तक में संकलित हुआ है। वह व्याख्यान इन शब्दों के साथ समाप्त हुआ था : “गौतम बुद्ध के अंतिम शब्द थे- सम्मासती। सम्यक् स्मृति। याद रखना कि तुम भी बुद्ध हो!” तब किसी ने नहीं सोचा था कि ये ख़ुद रजनीश के अंतिम सार्वजनिक शब्द साबित होंगे!

20 अगस्त 1989 को एक डेंटल सेशल के दौरान रजनीश ने कहा कि उन्हें अपनी आँखों के सामने नीले रंग में ओम की आकृति दिखाई दे रही है और यह संकेत है कि मृत्यु का क्षण अब आन पहुँचा है। उन्होंने उस आकृति का रेखाचित्र भी बनाया। इसके बाद उन्होंने आश्रम में अपनी समाधि बनवाने की तैयारियाँ शुरू करवा दीं। यह भी निर्देश दिया कि समाधि-पट्‌ट पर क्या लिखा जाएगा।

9 दिसम्बर 1989 को बम्बई में अज्ञात परिस्थितियों में रजनीश की अंतरंग सखी मा योग विवेक की मृत्यु हो गई। अंतिम आसक्ति छूट गई। अब रजनीश महासमुद्र के लिए अपने लंगर खोल देने को तैयार थे।

16 जनवरी 1990 : रजनीश आख़िरी बार बुद्धा हॉल में मेडिटेशन सेशन लेने आए।

17 जनवरी 1990 : वे केवल नमस्ते करने आए और तुरंत ही लौट गए। यह उनकी अंतिम नमस्ते थी।

18 जनवरी 1990 : रजनीश ने संदेशा भिजवाया कि वे अत्यंत बीमार हैं और हॉल में नहीं आ सकेंगे, किंतु वे अपने कक्ष में बैठे ध्यान कर रहे हैं और वहीं से साधकों का साथ देंगे।

19 जनवरी 1990 : बुद्धा हॉल में जब सब रजनीश की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब वह युगांतकारी ख़बर आई, जिसे सभी स्वीकार करने से डर रहे थे। नीलम, आनंदो, शून्यो, मनीषा की उपस्थिति में अमृतो ने घोषणा की–

‘ओशो लेफ़्ट हिज़ बॉडी!’

एक क्षण का सन्नाटा… और फिर समूचे सभागार में आर्तनाद और चीत्कारें गूँज उठे। अमृतो ने संन्यासियों तक रजनीश का संदेश पहुँचाया कि उनके देहत्याग का शोक नहीं उत्सव मनाना है। यह रजनीश के संन्यासियों की सबसे कड़ी परीक्षा थी।

दस मिनटों के लिए रजनीश का पार्थिव शरीर बुद्धा हॉल में लाया गया और वहाँ उसे उस जगह संन्यासियों के दर्शनार्थ रखा गया, जहाँ नियमित प्रवचन देते थे। संन्यासी संगीत की ध्वनि पर झूम रहे थे, डोल रहे थे और ओशो का उद्घोष कर रहे थे। कुछ मूर्ति की तरह अडोल बैठे अपने गुरु के अंतिम दर्शन कर रहे थे। कुछ की रुलाई फूट पड़ी। कुछ शोक से जड़ हो उठे।

मुळा-मुठा नदी के तट पर रजनीश का दाह-संस्कार किया गया और उस रात संन्यासी रिक्त होकर आश्रम लौटे।

पक्षी उड़ गया था… स्वर्ण का पिंजरा भर शेष रह गया था!

पुणे कम्युन में रजनीश की समाधि के शिलालेख पर उन्हीं की इच्छा से यह लिखा गया है :

“ओशो :
कभी नहीं जन्मे, कभी मरे नहीं…
वे बस 11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक
इस पृथ्वी की यात्रा पर आए थे!”

साभार: सुशोभितय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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