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ओरांगउटान ! कनक तिवारी की कलम से

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Positive India:Kanak Tiwari:
ओरांगउटान नामक मानव पूर्वज प्रजाति का उल्लेख मुक्तिबोध ने प्रसिद्ध कविता ‘‘दिमागी गुहांधकार का ओरांगउटांग’’ में किया था। कालजयी कवि ने उस मनोवृत्ति पर करारी चोट करनी चाही थी जो ओरांगउटान की तरह अनावश्यक परंपराओं से सीधेपन के कारण या तो मारी जा रही है या गिरफ्तार हो रही है। ओरांगउटान भोला, सीधासाधा और अन्याय सहने वाला नागरिकों की कदकाठी का ही होता है।
मोहनदास करमचंद गांधी की चेतावनी के बावजूद अंग्रेजी संविधान, परंपराएं, पूर्वोदाहरण बल्कि मुहावरे भारतीय विचार का हिस्सा बन गए हैं। राम ने लोकतंत्र की सबसे निचली पायदान पर खड़े धोबी तक के जेहन में राजमाता सीता को लेकर संदेह भी पुख्ता नहीं होने दिया। अंग्रेज सिखा गया कि राजा तो क्या नौकरशाह तक का हर फैसला सद्भावनाजन्य ही माना जाएगा। उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो सकती। पवित्र संविधान की झूठी कसमें खाई जाती हैं। संविधान का ड्राफ्ट अंग्रेजपरस्त बुद्धिजीवियों अलादि कृष्णास्वामी अय्यर, गोपालस्वामी आयंगर, बी0एन0 राव, एच.सी.मुखर्जी वगैरह ने बनाया था। डा0 अंबेडकर भी असुविधाजनक अंग्रेजियत के प्रभाव से नहीं बच पाए।
गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम कूड़ेदान में गया। सांसदों की अपराधवृत्ति को संसद की गरिमा कहा जा रहा है। ब्रिटिश संसद को गांधी ने प्रधानमंत्री के इशारे पर नाचने वाली नर्तकी का नाम दिया था। यूरोप और जर्मनी के अर्थचिंतक माक्स और एंजेल्स भी पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता के पैरोकार थे। हूकूमत में रही कांग्रेस के प्रधानमंत्री ने भी इंग्लैण्ड जाकर अंग्रेजों के गुण गाए। मौजूदा प्रधानमंत्री उम्मीदवार अमेरिका जाने के लिए तत्पर रहते ही हैं। बंगाल और केरल से बहिष्कृत लाल झंडे के पैरोकार लेनिन और माओ को गांधी से बड़ा मानते रहे हैं। देशी गमक के लोहिया के चेले भी गिटपिट अंग्रेजी, लैपटाप और जींस में घुस गए। नोआखाली में गांधी ने मरने के पहले कहा था, ‘गांधी अंग्रेजी भूल गया है’। देश तोता रटंत कर रहा है ‘अंग्रेजी हमारी रोजी रोटी और सभ्यता की भाषा है।’ हिंदी तो दकियानूस लोग बोलते हैं।
किसी से हटने के लिए अंग्रेजी में ‘एक्सक्यूज मी’ कहते हैं। हंसते हंसते ‘साॅरी’ कहते रहते हैं। बेटा बाप को एक ग्लास पानी देता है। कान्वेंट स्कूल के बच्चे के बाप को ‘थैंक यू’ कहना सिखाया जाता है। श्रवण कुमार की कथा पाठ्यक्रम से हटा दी गई है। नाॅर्वे कानून बनाता है कि दुधमुंहे बच्चे को भी मां स्तनपान नहीं करा सकती। न ही हाथ से खाना खिला सकती है। भारत में सबसे ज्यादा ह्दयरोगी और कैंसर पीड़ित हैं। फिर भी यह देश बर्गर, हैम्बर्गर, चाउमीन और मैक्डोनाॅल्ड के मांस वगैरह का अनाथालय है। अजीनोमोटो नमक चीन से ज्यादा भारत में खाते हैं। इटली का पास्ता सबसे सुपाच्य हो गया है।
खानपान, रहनसहन, बातचीत, आवभगत, देखभाल सबमें हम गोरों की संतानें हो गए हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कोहिनूर चला गया। ढाके की मलमल बनाने वाले हाथ काट दिए गए। जबरिया विश्व सुंदरियों को सौंदर्य प्रसाधन बेचने के लिए भारत में कभी ईजाद किया गया। देर रात के अमेरिकी चैनलों का प्रचलन जारी है। किसानों की जमीन लूटने को विकास कहते हैं। ‘एंटीलिया’ को साबरमती और सेवाग्राम के बदले भारतीयता का ब्रांड बनाया जा रहा है। खराब अंग्रेजी और कान्वेन्टी हिन्दी में देश के नेता गांधी और नेहरू जैसे बुद्धिजीवियों की समझ पर थूकते रहते हैं। देश का कारवां ढलान पर है। पाथेय घुमावदार मोड़ के बाद गहरे अंधेरे में है। भारत को महाशक्ति बनने की पीनक में रखने वाले देश उसे एक्सीलरेटर पर पैर रखने की सलाह देते हैं जबकि ब्रेक को बिगाड़ दिया गया है।
अंग्रेजी पूर्वोदाहरणों और परंपराओं के नाम पर विचित्र स्थापनाएं हैं। पार्टियों के कथित लोकतंत्रीय संविधान में राष्ट्रीय अध्यक्ष को हर फैसला उलटने का अधिकार है। पंचायतों को संवैधानिक दर्जा दिया गया है लेकिन कलेक्टर अमूमन हर फैसले को बदल सकता है। मुख्य न्यायाधीशों को अधिकार है कि वे किसी भी न्यायाधीश के मुकदमे को वापस ले सकते हैं। राज्यपाल और राष्ट्रपति संविधानप्रमुख हैं। लेकिन उनके अधिकारों का इस्तेमाल नौकरशाह ही धड़ल्ले से जनविरोध रहते भी करते हैं। आधे फैसले जनविरोधी होते हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री एक सीट से चुने जाते हैं। चुने जाने पर उनमें विशेषाधिकार फुफकार लेने लगता है जिसे चाहें मंत्री बनाएं या हटा दें। कहां है लोकतंत्र? कैसी जम्हूरियत है? ठगा सा आम आदमी ओरांगउटान की तरह लोकप्रशासन की हांडी में हाथ डालकर अपने लिए कुछ पा लेने का जतन कर रहा है। नेताओं ने जनता को ऐसा ही बना रखा है। औसत भारतीय नागरिक स्वैच्छिक गरीबी और शोषण के खिलाफ कब लामबंद होगा?
साभार:कनक तिवारी( यह लेखक के अपने विचार हैं)

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