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मोदी विरोध के गुरुर में किसान मुनाफा तो दूर लागत के लिए भी तरसता रहे

कारपोरेट और उस की आवारा पूंजी अब विकास के पहिए में तब्दील है।

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Positive India:Dayanand Pandey:
गज़ब है फेसबुक पर यह अठखेलियां भी। एक मित्र ने पोस्ट लिखी :
आज हम सपरिवार जियो न.को पोर्ट कर रहे हैं।
इस पोस्ट पर आई कुछ प्रतिक्रियाएं और दिलचस्प रहीं। एक मित्र ने लिखा : ठीक किया। मैं ने कभी इस का साथ ही नहीं किया। दूसरे मित्र ने लिखा : राष्ट्रहित में बहुत बड़ा फ़ैसला। तीसरे मित्र ने लिखा : इस फैसले से सेन्सैक्स में भारी उछाल । अन्तराष्ट्रीय बाजार में रिलायंस धड़ाम ।

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किसी अन्य मित्र ने लिखा : बेचारे अम्बानी। अब तो एंटीलिया बिक ही जाएगा। कहाँ जाएंगे इतनी ठंड में। किसी और ने लिखा : बहुत सही फैसला मगर आपको कसम है किसी भी हिंदुस्तानी व्यापारी से उसके बनाए हुए प्रोडक्ट का इस्तेमाल नहीं करेंगे। किसी और ने लिखा : मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि एक हिन्दी का महत्वपूर्ण कथाकर और प्रोफेसर जिओ के झांसे में आ गया।

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किसिम-किसिम की रंग-बिरंगी टिप्पणियां देखने को मिलीं। कुल मिला कर पता यह चला कि क्रांति ऐसे भी होती हैं। प्रतिक्रियाओं को आप प्रति क्रांति मान लें या प्रतिक्रियावादी कह लें। लेकिन सवाल यह है कि कल परसों या किसी और दिन सही किसान आंदोलन खत्म हो जाता है, जैसी कि ख़बरें बता रही हैं तब क्या होगा , इस क्रांति और इन प्रतिक्रियावादियों का। या फिर उन किसानों का अभी क्या होगा जो अभी भी बिग बास्केट, पेप्सी, तमाम डिस्टलरी या अडानी, रिलायंस आदि को उसी पंजाब, हरियाणा में सब्जी या अनाज निरंतर बेचते आ रहे हैं। या कि आगे भी बेचते रहेंगे।

सच तो यह है कि समूची दुनिया अब कारपोरेट की, कारपोरेट की आवारा पूँजी की मुट्ठी में है। किसी क्रांति या किसी क्रांतिकारी के बाजू या आंदोलन में अब दम नहीं है कि कारपोरेट की कांख में दबी दुनिया को उस से उबार सके। कारपोरेट और उस की आवारा पूंजी अब विकास के पहिए में तब्दील है। आप सहमत रहिए, असहमत रहिए अब सच यही है। बाक़ी मोदी विरोध के लिए अंबानी, अडानी का विरोध भी गुड है। टाटा, बिरला का विरोध कर के लोग विदा हो गए। किसी को बाटा का विरोध करते नहीं देखा। हिंदुस्तान लीवर का विरोध करते नहीं देखा। तब जब कि इन में से एक भी हिंदुस्तानी कंपनी नहीं है। कॉलगेट पेस्ट से लगायत लाइफबॉय, लक्स साबुन समेत तमाम प्रोडक्ट इसी हिंदुस्तान लीवर का है। जो पाकिस्तान जा कर पाकिस्तान लीवर हो जाता है। बाटा का भी यही हाल है।

तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां कब से हमारे घर और जीवन में जाने कब से घुसी हुई हैं। आदत और जीवन में गहरे धंसी हुई हैं। आटा, दाल, चावल, सब्जी, पानी, शराब, कपड़ा, जूता, कार, बाइक हर कहीं। मोबाइल, कंप्यूटर, टी वी, फ्रिज हर कहीं। तमाम सड़कें, पुल और घर भी यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही तो बना रही हैं। जहाज और हेलीकाप्टर कब त्याग देंगे आप। बताएंगे ? क्यों कि यह सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियां के ही बूते उपस्थित हैं हमारे जीवन में। अखबार का काग़ज़ और छापने की मशीन तक तो विदेशी है। न्यूज़ चैनलों के, अन्य चैनलों के, फिल्मों के कैमरे और अन्य तकनीक तक तो विदेशी हैं। क्राफ्ट और डिजाइन तक तो विदेशी हैं। मल्टीनेशनल हैं। फिल्मों की कहानियां तक उड़ाई हुई ही होती हैं। सीन दर सीन। गानों की धुन और लिरिक्स तक। यहां तक कि साहित्य में लेखकों , कवियों की रचना और आलोचना के औज़ार तक विदेशी। कोई कहीं डुबकी मार रहा है , कोई कहीं। मार्खेज़ और सार्त्र के बिना आप दो कदम चल नहीं पाते। ब्रेख्त और पाब्लो नेरुदा के बिना आप की क्रांति नामुमकिन हो जाती है। यानी यहां भी मल्टीनेशनल। चुनांचे आप अपने जीवन में पूंजी ही पूंजी, सुविधा ही सुविधा चाहते हैं पर किसान के जीवन में पूंजी और सुविधा बिना किसी पूंजीपति के सहयोग के चाहते हैं।

ग़ज़ब है आप का यह सपना और आप का यह चयन भी। बेटा, बेटी तो मल्टीनेशनल कंपनियों में लाखों , करोड़ों के पैकेज पर काम कर सकते हैं, पैसे के लिए प्रतिभा पलायन का खेल, खेल सकते हैं लेकिन किसान इन मल्टीनेशनल कंपनियों से दूर ही रहे। किसान की उपज इन से दूर रहे। राजनीतिक पार्टियां तक मल्टीनेशनल कंपनियों से चंदा ले सकती हैं लेकिन किसान उन से पूंजी ले, ले और वह किसान से उस की उपज। तौबा, तौबा ! मोदी विरोध के गुरुर में किसान, मुनाफा तो दूर, लागत के लिए भी तरसता रहे, यही तो आप चाहते हैं। किसान कर्जा लेता रहे, आत्महत्या करता रहे। लाइन लगा कर डीजल और ब्लैक में खाद खरीदता रहे, यही तो चाहते हैं आप। वेरी गुड है यह भी। चचा मिर्ज़ा ग़ालिब वैसे ही तो नहीं लिख गए हैं :

ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिस के दुश्मन उस का आसमाँ क्यूँ हो।

साभार:दयानंद पांडेय-एफबी।

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