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साय सरकार का एक वर्ष: नक्सल मुद्दे पर बेहतर

- दिवाकर मुक्तिबोध की कलम से -

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Positive India: Diwakar Muktibodh:
छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय सरकार का एक वर्ष का कार्यकाल 13 दिसंबर को पूर्ण हो गया. पिछले वर्ष इसी दिन साय ने मुख्य मंत्री पद की शपथ ली थी. उनके नेतृत्व में भाजपा सरकार का यदि एक साल का ट्रेक रिकॉर्ड देखा जाए तो वह सामान्य से अधिक नहीं है. दरअसल जिन वायदों के साथ भाजपा ने 2023 के विधान सभा चुनाव में उल्लेखनीय प्रदर्शन किया था और सत्ता हस्तगत की थी, उनमें से कुछ योजनाएं सरकार ने तुरंत प्रारंभ कर दी जिसमे किसानों की ऋण माफी, बढी हुई दरों के साथ धान खरीदी, बकाया पिछला बोनस, तेंदूपत्ता संग्राहकों से तेंदूपत्ता खरीदी में वृद्धि तथा प्रदेश की करीब 70 लाख महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन की महतारी वंदन जैसी योजनाएं शामिल हैं.

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लेकिन चुनावी वायदों के व्यतिरेक विकास की अन्य योजनाएं कागजों पर तो बहुत बेहतर नज़र आती हैं किंतु वास्तविक रूप में उन पर क्रियान्वयन की गति बहुत धीमी है. इसलिए यदि आंकलन करें तो कार्यकाल के प्रथम वर्ष में केवल नक्सल मुद्दे को छोड़कर ऐसा कुछ विशेष कार्य नहीं है जिससे सरकार की पीठ प्यार से थपथपाई जा सके. इसी संदर्भ में एक बड़ी कमजोरी भी उभरकर सामने आई है. मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की वह छवि जो सरल व विनम्र तो है किंतु दृढता के साथ शासन-प्रशासन चलाने की दृष्टि से अपनी स्वाभाविक प्रकृति के दायरे से बाहर नही आ पाई है. अर्थात सहज – सरल सामान्य व्यवहार को कायम रखते हुए शासन के मुखिया के रूप में उनकी जैसी छवि गढनी चाहिए थी, वह फिलहाल कोसो दूर है. इसलिए यदि जनमानस में यह धारणा बन रही है कि मुख्यमंत्री ढीले हैं. राज्य सरकार केन्द्र की कठपुतली बनी हुई तथा उसके इशारे पर सरकार चल रही है. मुख्यमंत्री स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार से अघोषित रूप से वंचित है तो यह सरकार व भाजपा संगठन दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. हालाँकि उनके कार्यकाल के अभी चार वर्ष शेष है और इस बीच मंत्रिमंडल के विस्तार के अलावा संगठन में भी बदलाव की गुंजाइश है. अत: उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले वर्षों में सरकार का कामकाज अधिक बेहतर व जनोपयोगी होगा.

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वैसे इसे विष्णुदेव सरकार का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उस पर सिर मुडाते ही ओले पडे वाली कहावत चरितार्थ हो गई. सरकार को एक वर्ष के दौरान राज्य में कानून-व्यवस्था की जो चुनौती मिली वह अभूतपूर्व थी. सामाजिक सौहार्द्र को चूर-चूर करने वाली कुछ ऐसी आपराधिक घटनाएं घटीं जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. इनमे बलौदाबाजार में शासकीय इमारत को जला देने , कवर्धा में एक ही समुदाय के लोगों की आपसी हिंसा, हत्याएं, सूरजपुर में एक पुलिस अधिकारी के परिवार के सदस्यों की नृशंस हत्या, पुलिस हिरासत में मौतें तथा कत्ल की दर्जनों वारदातें शामिल हैं. अब सरकार व पुलिस जरूर मुस्तैद हुई है, अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई भी हो रही है, लेकिन शासन-प्रशासन ने यह दम शुरू से ही दिखाया होता तो कम से सामाजिक सद्भाव के बिगड़ने की नौबत नहीं आती. बलौदाबाजार जैसी घटना को निश्चित रूप से रोका जा सकता था. यदि बेमेतरा जिले की बिरनपुर की घटना पूर्ववर्ती भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार पर दाग की तरह थी तो शहर बलौदाबाजार व कवर्धा जिले की लोहारडीह तथा आरंग में माब लीचिंग की घटना ने विष्णुदेव देव साय को कटघरे में खड़ा कर दिया. इससे यह संदेश गया कि सरकार व नौकरशाही बेपरवाह है. मुख्यमंत्री केवल एक चेहरा है. लगाम किसी और के हाथ है. इस बहुचर्चित धारणा से ,चाहे तो इसे अफवाह कह लें, भाजपा संगठन भी चिंतित नज़र आता है.

यह जग जाहिर है कि वर्तमान सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदेश से नक्सलवाद का खात्मा है. केन्द्रीय सरकार के गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक दशकों पुरानी इस समस्या को जड़ से उखाड फेंकने का संकल्प घोषित किया है. इसमें क्या शक कि साय सरकार ने बस्तर से नक्सलवाद को खत्म करने के लिए केन्द्रीय बल व राज्य की पुलिस की मदद से जो अभियान चला रखा है, उसे अच्छी सफलता मिल रही है. चंद महीनों के भीतर विभिन्न मुठभेडों से सुरक्षा बलों ने प्रमुख नक्सली कमांडरों सहित न केवल दो सौ से अधिक नक्सलियों को मार गिराया वरन उनके शव भी बरामद किए. इस दौरान लगभग आठ सौ गिरफ्तार हुए तथा बड़ी संख्या में माओवादियों ने आत्मसमर्पण भी किया. नक्सली अब बैकफुट पर हैं तथा उनका सूचना तंत्र भी कमजोर पड़ गया है. समूचा बस्तर धीरे-धीरे नक्सल मुक्त होता जा रहा है. यदि सरकार का अभियान इसी गति से चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब बस्तर शांति का प्रतीक बनकर उभरेगा. अगरचे इस विषय को छोड़ दें तो बाकी चीजें हवाई हैं. इस आदिवासी अंचल में भौतिक संरचाओं के विकास व आदिवासी समाज के उन्नयन की योजनाएं हमेशा की तरह कागजों पर अधिक लुभावनी नज़र आती है पर जमीनी स्तर पर इसकी गति बहुत धीमी है. ऐसा प्रतीत होता है कि शहरी व ग्रामीण विकास की भूपेश बघेल की अनेक योजनाओं जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली थी, उन पर अपना मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश में सरकार वक्त जाया कर रही है. मसलन नरवा गरवा घुरवा बाडी, गौठान, अंग्रेजी माध्यम की स्वामी आत्मानंद शालाएं तथा ग्रामीण रोजगार से संबंधित अनेक विकास मूलक योजनाएं इस श्रेणी में हैं जिन्हें राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है. इसी तरह छत्तीसगढ की लोक संस्कृति को बढावा देने व तीज त्यौहारों को सरकारी स्तर पर मनाने का जो सिलसिला कांग्रेस सरकार ने शुरू किया था, उस क्रम को यद्यपि साय सरकार ने जारी रखा है पर उसमें पहले जैसी तीव्रता नहीं है.

विष्णुदेव साय सरकार ने अपने चुनावी वायदे के मुताबिक कांग्रेस के जमाने का बहुचर्चित महादेव ऐप कांड, शराब घोटाला व पीएससी घोटाले की ईडी व स्थानीय जांच एजेंसियों से जांच शुरू करके घोटालेबाज आरोपियों को जेल भेजकर अपना संकल्प पूरा किया है. आर्थिक अपराध व अन्य अपराध के आरोपियों पर सरकार का शिकंजा कसता है तो आम जनता खुश होती है व सरकार को इस एक काम के लिए पूरे नंबर देती है. साय सरकार को ये नंबर मिल गए हैं.

लेकिन मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय अपनी शांत प्रकृति के बावजूद जनता से सीधा वास्ता रखने के मामले में अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों से पीछे है. अजीत जोगी हो या डाक्टर रमनसिंह या भूपेश बघेल, ये सभी आम लोग को भेट मुलाकात को प्राथमिकता देते थे तथ हर समय उपलब्ध रहते थे किन्तु विष्णुदेव देव साय के साथ ऐसा नहीं है. कम से कम सीएम हाऊस के बारे में यह अनुभव किया गया है कि साय ऐसे अधिकारियों से घिरे रहते हैं जो यह तय करते हैं कि सीएम को किससे मिलना चाहिए किससे नहीं. और तो और वे मीडिया से भी उनकी दूरी बनाए रखते हैं. यदि किसी मीडिया कर्मी को सीएम से मिलना हो तो इसके लिए उसे भारी मशक्कत करनी पड़ती है. अफसरों का ऐसा घेरा मुख्यमंत्री को जमीनी हकीकत से वंचित करता. है राजनीतिक दृष्टि से भी यह प्रवृति पार्टी के लिए घातक है.

इन सब तथ्यों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकार का पहला वर्ष विशेषकर नक्सल मुद्दे के लिए स्मरणीय रहेगा.

साभार:दिवाकर मुक्तिबोध-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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