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ओ रे ताल मिले नदी के जल में…

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
पितृपक्ष में उन बरगदों की बड़ी याद आती है जिनकी छाँव जीवन का पहला सुख थी। पिता, पितामह… हाथ में कुश, तिल अक्षत और जल उठाते ही आंखों के सामने तैर उठती है बाइस्कोप की रील! ये बाबा आये, ये पापा, ये काका, ये चाचा, ये बड़के बाबूजी… जैसे किसी पिटारे में अपने पसन्द की चीजें देख कर धधा जाता है मन! बस छू ही तो नहीं सकते, एक झलक देख कर सन्तोष करना है…

पिता की कई छवियां दिखती हैं, थोड़े नाराज! थोड़े उदास! कभी डांटते हुए, कभी मुस्कुराते… पितामह की छवियों में डांट नहीं, उदासी नहीं, केवल प्रेम है। दुलार, आशीर्वाद… इस गणित से लगता है पितामह से पहले वाले पूर्वजों की ओर से तो केवल और केवल आशीर्वाद ही होगा।

हिन्दी की हजारों किताबें चाट लेने के बाद भी मन से ‘क’ की वह पहचान नहीं मिटी, जो कभी बाबा मुर्गी के अंडे, सिपाही के डंडे और बिल्ली की पूंछ मिला कर कराए थे। मिटा तो उस पेड़े का दिव्य स्वाद भी नहीं, जो बाजार से लौटने पर उनके कुर्ते की बगली से अखबार के टुकड़े में छिपा हुआ आता था। आधे बित्ते का वह अखबार जितना अपना लगता था, उतना अपनत्व उस अखबार पर भी नहीं आता जिसमें किताबों की चर्चा के साथ अपनी सुन्दर तस्वीर छपी होती है। प्रेम का मतलब तो बाबा ही होते हैं भाईसाहब!

धर्म की उंगली थाम कर पीछे निहारूँ तो महर्षि शाण्डिल्य और कश्यप से होते हुए तार क्षीरसागर में खिले उस कमल तक जाते हैं जिसपर ब्रह्मदेव विराजते हैं और जो भगवान श्रीहरि की नाभि से निकलता है। कमल कौन? इस सृष्टि का पहला अंकुरण… समूची वसुंधरा में नित्य अंकुरित होते करोड़ों जीव पुष्पों में उसी पहले कमल का बीज है, जिसपर ब्रह्मदेव दिखते हैं हमें। एक व्यवस्थित सभ्यता का हिस्सा होते ही आप कितने विराट हो जाते हैं न?

चार दिन पहले पड़ोस के एक चाचा गयाजी जा रहे थे। ग्रामीण परम्परा के अनुसार टोला भर के लोग उन्हें गाजे बाजे के साथ पूरे गाँव का चक्कर लगाते हुए छोड़ने गए। मैंने देखा, वे अपने गमछे में बार बार अपने अश्रु छिपा रहे थे। सोचिये न! एक उत्तम और पुण्यकाज के लिए निकलते समय अश्रु?? लेकिन इसे समझने के लिए एक उम्र की आवश्यकता होती है। जाने के वर्षों बाद जब पिता याद आते हैं, तो आंखें यूँ ही तर्पण करने लगती हैं। फिर उन्हें तो अपने सामने गुजरे दर्जनों चेहरे याद आ रहे होंगे… कैसे न रो उठे वह बृद्ध?

पितृपक्ष में हरिद्वार, बनारस, गया में भटकती हमारी श्रद्धा अपने पितरों को स्वर्ग में देखना चाहती है। जहां दूध दही की नदियां बह रही हों। जहां की हवा में हवन की गंध पसरी हो… जहां शुक पिक वेदों के मंत्र गा रहे हों… जहां घृणा, द्वेष, क्रोध का नाम न हो… जहां पहुँच कर देवता हो जाँय वे… विष्णु में मिल कर विष्णु हो जाँय वे… हो ही जाते हैं।

उस गीत में इंदीवर कहते हैं, “सागर मिले कौन से जल में, कोई जाने ना!” सागर कहीं नहीं जाता, पर हवा के साथ उसका जल आकाश में जाता है और बूंदें वापस ताल में लौट आती हैं। हम बस प्रार्थना करते हैं- देव! हमारे पितरों को वापस न आना पड़े। वे वहीं रहें… तृप्त रहें… देवता बने रहें…

साभार:सर्वेश तिवारी-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

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