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नेताजी एवं नेतृत्व की परिभाषा का विस्तृत विश्लेषण

-विशाल झा की कलम से-

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Positive India:Vishal Jha:
नेताजी शब्द की ही अपने आप में एक गरिमा होती है। देखा जाए तो भारत ने अपनी राजनीति में दो तरह के नेतृत्व को प्राप्त किया है। एक नेतृत्व ऐसा जिसमें किसी भीड़ अथवा जन समुदाय को नेतृत्व प्रदान करना आसान होता है। इस प्रकार के नेतृत्व में भीड़ की आकांक्षा के हिसाब से काम करना होता है। एक वक्त में जब भीड़ की इच्छा पर पूर्णतया खरा साबित होने के लिए आगे बढ़कर कुछ ऐसा कृत्य करना होता है, कि पूरा भीड़ प्रसन्न हो जाता है और नेतृत्व करने वाला उस भीड़ के लिए प्रमाणिक तौर पर नेताजी बन जाता है। फिर इस नेतृत्व में जो नेताजी तैयार होता है उसे निर्धारित पथ से तनिक भी विलग होने की इजाजत नहीं होती। इस भीड़ और नेतृत्व से बनी राजनीति इतना सशक्त होता है कि वह भीड़ अपने नेता से तमाम स्थापित कायदे कानून और मर्यादाओं को पार करवाने की क्षमता रखता है। चाहे ये कायदे कानून लोकहित अथवा जनहित में क्यों ना स्थापित किए गए हो? ऐसे नेतृत्व में सबसे बड़ी सहूलियत क्या होती है कि यह भीड़ अपने नेता के लिए अनहद सुरक्षा का इंतजाम रखता है। उदाहरण देखिए कि 200 से अधिक रामभक्तों पर गोली चलवाने वाले मुलायम सिंह यादव के खिलाफ एक मामूली सा मुकदमा दर्ज कराने में सुप्रीम कोर्ट तक भी असफल रहा। विभाजन के पश्चात कम से कम 15 लाख हिंदुओ के साथ हत्या बलात्कार जैसी तमाम हिंसाए हुई, लेकिन राष्ट्रपिता गांधी जी की प्रतिष्ठा 70 वर्षों तक अक्षुण्ण रही। किंतु इस तरह के नेतृत्व में किसी सभ्य समाज अथवा राजनीति में नेताजी के लिए दीर्घकाल तक आदर सुरक्षित नहीं रह पाता। और यहां पर नेताजी शब्द की गरिमा पूरी तरह से खत्म हो जाती है।

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दूसरे प्रकार का नेतृत्व बहुत कठिन होता है। ऐसे नेतृत्व में नेतृत्व देने वाले व्यक्ति का उद्देश्य किसी भीड़ का नेता बनना नहीं होता, बल्कि धर्म और नैतिकता के बूते पर उसका अपना एक लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य का संधान करते हुए व्यक्ति लगातार अपने कर्म पथ पर चलते बनता है। पीछे कौन आ रहा उसकी परवाह नहीं करता। एकला चलो का सूत्र लेकर चलता है और पीछे कारवां बन जाता है। और यही कारवां जब किसी समाज अथवा समुदाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है तब नेतृत्व देने वाला नेताजी के रूप में स्थापित हो जाता है। पर ऐसा नेतृत्व बड़ा जोखिम भरा होता है। पीछे खड़े लोग किसी प्रकार से भी अपने नेताजी के लिए सुरक्षा की गारंटी नहीं होते। बल्कि कभी कभार अपने नेताओं की नीति से मतभेद पाकर आलोचना और विरोध भी करते हैं। इसलिए ऐसे नेताओं को समाज में तत्काल स्वीकृति भी नहीं मिल पाती। क्योंकि वक्त से पहले ही नेतृत्व से डर जाने वाले लोग तमाम तरह के षड्यंत्र करके इस उभार को रोक देते हैं। तभी सावरकर को लगातार दो दो जन्म की काला पानी की सजा मिल जाती है। सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ता है और अंग्रेजों के विरुद्ध असली आजादी की लड़ाई लड़ने के बावजूद वे वॉर क्रिमिनल घोषित हो जाते हैं। तथा निर्वासित जीवन व्यतीत करते हैं। लेकिन ऐसे नेताजी की सबसे बड़ी बात यह है कि इन्हें आदर एक दीर्घकाल में प्राप्त होता है। जैसे-जैसे वक्त बीतता है इतिहास में ये पूजनीय होते जाते हैं ।

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एक तीसरे तरह का नेतृत्व भाजपा और आरएसएस के नेतृत्व में पाया जाता है। ऐसे नेतृत्व में उपरोक्त दोनों प्रकार के नेतृत्व का सम्मिश्रण होता है। आरंभ नेतृत्व के पहले प्रकार से होता है और दूसरे प्रकार पर आकर स्थाई हो जाता है। इस प्रकार का नेतृत्व जनसमुदाय में अपनी स्वीकृति प्राप्त कर फिर जनहित और लोकहित की दिशा में पूरी व्यवस्था को मोड़ने का प्रयास करता है। और साथ ही पहले तरीके से नेतृत्व के लिए सार्वजनिक प्रतिगमन भी करता है। भाजपा द्वारा राम मंदिर आंदोलन में नेतृत्व करना जन समुदाय में अपनी स्वीकृति प्राप्त करना है। पर भाजपा को जब राम मंदिर आंदोलन से राजनीति में एक बड़ी स्वीकृति मिली तब राम मंदिर भूमि पूजन के वक्त आडवाणी जी का बयान आया था कि हमें आंदोलन नहीं करना चाहिए था, समाज में एक साझा समझ बूझ के साथ मंदिर निर्माण का यह कार्य किया जा सकता था, दरअसल यह पहले प्रकार से समाज को नेतृत्व देने के विरुद्ध एक प्रतिगमन था। और फिर एक बार जब सनातन समाज ने अपने दम पर काशी विश्वनाथ के लिए लड़ाई मजबूत कर ली, तब मोहन भागवत जी ने ऐलान किया कि हम हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं ढूंढ सकते। मतलब साफ है कि राष्ट्रवादी नेतृत्व अब नेतृत्व के दूसरे प्रकार से देश के लिए अपनी दिशा तय कर रहा है कि जहां अखंड राष्ट्र बनने से पहले संपूर्ण अल्पसंख्यक समाज ही किसी वसीम रिजवी की तरह एकमुश्त घर वापसी कर ले और भारत अखंड हो जाए। ऐसा नेतृत्व किसी नेताजी के लिए एक सुंदर परिभाषा प्रदान करता है।

साभार:विशाल झा-(ये लेखक के अपने विचार है)

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