
NCERT की किताबों में टॉक्सिनेशन, मक्कारी और गुमराह करने वाली चीजें आज भी वैसी ही विद्यमान है
-कुमार एस की कलम से-

Positive India:Kumar S:
NCERT का पाठ्यक्रम न बदलना वास्तव में आश्चर्यजनक है।
इसमें टॉक्सिनेशन, मक्कारी और गुमराह करने वाली चीजें वैसी ही विद्यमान है। खासकर कक्षा 6से 12 का पाठ्यक्रम जिस पर बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की नींव होती है, यह उसी रूप में खड़ा है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अधिकांश निष्ठावान समर्पित और ऊर्जावान कार्यकर्ता इसी आयुवर्ग में संघ से जुड़े थे। 11 से 17 वर्ष के बालको के लिए यह संक्षिप्त अवधि एक युग के समान होती है। योगेंद्र यादव ने इसी पर प्रहार किया था।
सोनिया गांधी की सलाहकार समिति के इशारे पर 2005 में जो पाठ्यक्रम उसने बनाया, उसका तानाबाना ऐसा रखा कि उसे पढ़ने के बाद संघ की व्यक्ति निर्माण की सभी इकाइयां मंद पड़ गई।
ध्यान रहे, पाठ्यक्रम का प्रभाव पढ़ने वालों से भी ज्यादा पढ़ाने वालों पर पड़ता है, वे इसे बार बार और प्रतिवर्ष दुहराते हैं तो 2005 से 2025 तक नियुक्त विराट शिक्षक वर्ग ने इसे आप्तवाणी की तरह पचा लिया है और लगभग 90% भारतीय मेधा आज इसकी चपेट में है।
हम कहने को मानसिक अशांति के पीछे के कारणों में भले ही सोशल मीडिया या रील्स को दोष दें किंतु इसके समस्त बीज इस पाठ्यक्रम में निहित है। सारा अभारतीय चिंतन वहीं से आ रहा है। 2005 का पाठ्यक्रम जादू ऐसा हुआ कि 2010 आते आते संघ पीछे छूट गया। उसके बाद के पैटर्न को ध्यान से देखेंगे तो गलत चीजें पहले होती हैं और संघ उन्हें संतुलित करने के लिए जूझ रहा होता है जबकि उससे पहले संघ कुछ प्रतिमान स्थापित करता था और समाज उसे स्वीकारता था।
आज कुटुंब विघटन, व्यभिचार, मानवीय अंतर्संबंधों में अलगाव, भ्रष्टाचार की मौन स्वीकृति, लव जिहाद, वर्ग विभेद, लिंग सम्बन्धी विमर्श, वोकइज्म, परावलम्बन का आश्रय, दलितसवर्ण विमर्श, ईसाइयत के लिए उर्वरभूमि की उपलब्धता, मुस्लिम आक्रामकता के प्रति फोबिया, परकीयों से बौद्धिक स्वीकृति और सज्जन वर्ग में निराशा, हताशा का जो वातावरण बना है उसके मूल में केवल और केवल योगेंद्र सलीम यादव का उक्त कूटरचित पाठ्यक्रम है।
परिवर्तन के नाम पर इससे कुछ टॉपिक हटाये गये और कुछ जोड़े गए लेकिन वह मात्र 2% है। योगेंद्र यादव ने अपने नैरेटिव को बहुत महीन तरीके से पिरोया है। वह कारस्तानी केवल पाठों के शीर्षक में नहीं है बल्कि प्रत्येक चेप्टर, हरेक पंक्ति, हर शब्द के भीतर इस प्रकार से गुम्फित है कि आप उससे बाहर नहीं निकल सकते।
धूर्तता कदम कदम पर है। किसे छिपाना किसे उभारना, वैश्विक सन्दर्भों, प्रगतिशीलता और मानविकी की तटस्थ पढ़ाई के नाम पर जो जहर की खेती हुई है, उसे दूर तो क्या करें, पहचान तक नहीं पाए।
जैसे सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय नष्ट हो जाये और केवल गायत्री मंत्र बच जाए तो भी सम्पूर्ण भारतीय चेतना पुनः लौट सकती है, अथवा मॉरीशस के हिन्दू केवल एक पुस्तक रामचरितमानस से ही हिन्दू बने रहे, वैसे ही योगेंद्र यादव के पाठ्यक्रम का एक भी पंक्ति अवशिष्ट बचता है और पढ़ाया जाता है तो वह समग्र नैरेटिव को पुनः स्थापित करने में सक्षम है।
इस व्यक्ति की धूर्तता का कोई जवाब नहीं। आज 20 वर्षों के बाद भी वह अजेय है। नरेन्द्र मोदी की 3 सरकारें उसके सामने असहाय है, वे उसकी टक्कर का एक भी व्यक्ति स्थापित नहीं कर सके, यह संसार की अबतक की सबसे बड़ी बौद्धिक हार है।
धन्य है मोदी सरकार जो इस पराजय को प्रकट नहीं होने दे रही और चीजों को डायवर्ट कर रही है, यह उसकी चतुरता अवश्य है पर समाधान नहीं।
चतुरता इसलिए भी कि स्मृति ईरानी के समय से ही वह इस जाल में फंस चुकी है। बाद में तो #उत्तरोत्तर_देरी_होती गई और चीजें फिसलती चली गईं। कवि कुमार विश्वास का यह उलाहना कि संघी अनपढ़ रहने में ही खुश हैं, उनकी यह खीझ व्यक्त करता है कि समस्या का समाधान तो दूर, अभी तक समझ भी नहीं है।
बीच में नई शिक्षा नीति का झुनझुना अवश्य आया लेकिन इस कोलाहल में उसकी कोई गति नहीं है। करना क्या है यह तक नहीं समझ आ रहा।
हाल ही में राजस्थान के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर को बहुत पीड़ा के साथ यह कहना पड़ा कि हम गलत पढ़ाई करवा रहे हैं। जबकि सामने डोटासरा जी इस असहायता के लिए व्यंग्य से मुस्कुरा रहे थे।
पुनरुत्थान की आदरणीय इंदुमती जी, विद्याभारती जैसा संगठन, शैक्षिक महासंघ, भारी भरकम प्रकाशन संस्थान, सब परास्त हो गए। शंकरशरण वृद्ध हो गए। सीताराम गोयल को तो कोई पहचानता भी नहीं।
एक एक कर पुराने सभी यौद्धा खेत होते जा रहे हैं, समस्या जस की तस है।
बौद्धिक संपदा तितर बितर है, वैभव संभालने वाला कोई नहीं, चीजों को भीतर जाकर ठीक करने का धैर्य नहीं। राजस्थान में आरपीएससी का चेयरमैन ही नहीं है। आदमी नहीं मिल रहा शायद। एक बार पाठ्यक्रम के सम्बंध में ऑर्गेनाइजर के सम्पादक आदरणीय प्रफुल्ल कुमार जी से मेरी बात हुई।
पहली बात तो यह है कि आप बात करना चाहो तो सदैव यह भय भी बना रहता है कि यह कोई पद की लालसा में कह रहा है, सबकुछ ठीक ही है न, आपको दिखता नहीं, तो माथा पीट लिया।
हमारे उच्च पदों पर कितने विवश, भावहीन और खोखले लोग विराजमान हैं जो अपने विरुद्ध एक भी कड़वी बात #अपनों_के_मुख_से नहीं सुन सकते।
निष्कर्ष यही है कि या तो समस्या की भयावहता का अनुमान ही नहीं है या फिर वश में कुछ नहीं।
नीरज अत्रि, अजीत भारती ने इस विषय में कुछ प्रामाणिक रिसर्च किया है जिसकी गूंज बहुत कम है। सभी धर्मगुरु, कथावाचक, उपदेशक, मोटिवेटर, काउंसलर चुपचाप इस अन्याय को सहते जा रहे हैं। समझते हैं पर बोल नहीं सकते।
बौद्धिक युद्ध की सारी बॉलिंग आज भी उधर से हो रही है। हम आज भी वामपंथियों के बिखेरे कचरे को एकत्र कर कभी इधर सजाते हैं कभी उधर और उसी रेसिपी को थोड़ा रंग और स्वाद में परिवर्तन कर दिखाते हैं कि देखो हम लड़ाई जीत रहे हैं।
साभार: कुमार एस-(ये लेखक के अपने विचार हैं)