हनुमान जन्मोत्सव पर बंदर और मानुष एक ही पंक्ति में बैठ कर भोजन कर रहे हैं
- सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-
Positive India:Sarvesh Kumar Tiwari:
बताया जा रहा है कि महाराष्ट्र के अकोला जिले के किसी कोथली नामक स्थान में हनुमान जन्मोत्सव के अवसर पर बानरों का भोज कराया गया। बंदर जैसी उछल कूद करते रहने वाली प्रजाति को इस तरह पंक्तिबद्ध हो बैठ कर भोजन करते देखना भी कम आश्चर्यजनक नहीं।
सोच रहा हूँ, इन बंदरो में स्वयं के लिए भरोसा पैदा करना कितना कठिन रहा होगा। कितना कठिन तप करना पड़ा होगा… सामान्य जन मनुष्यों को नहीं साध पाते, कुछ लोग पशुओं को भी साध लेते हैं। भगवा लपेटे खड़े उस साधु के लिए मन में यूँ ही श्रद्धा का भाव उपज रहा है। उनकी साधना, उनका तप नमन के योग्य है।
सुखद यह भी है कि बंदर और मानुष एक ही पंक्ति में बैठ कर भोजन कर रहे हैं। समानता-असमानता के निरंतर चलते द्वंद और विमर्शों के बीच मानुष का बानरों की पंक्ति में बैठ कर भोजन करना मन मोह रहा है। है न सुन्दर? संसार के इस सबसे प्राचीन देश के प्रति अत्यधिक श्रद्धा होने का एक कारण यह भी है कि तमाम नकारात्मक खबरों के बीच कहीं न कहीं से कोई ऐसी तस्वीर आ जाती है कि देख कर मन झूम उठता है।
अपनी समस्याओं का हल निकाल लेने की शक्ति सबसे अधिक मनुष्य में है, फिर भी वह अपने अंदर की पशुता को नहीं मार पाता। ईर्ष्या, घृणा, डाह… हम किसी से स्वयं की रक्षा नहीं कर पाते। पशुओं के पास स्वयं का सुधार कर सकने की क्षमता मनुष्य से बहुत कम है, फिर भी वे बड़ी सहजता से मानवता सीख लेते हैं। कितना अद्भुत है न? काश! कि हम कुछ सीखते…
हमारे गांवों में अब भी कोई बंदरों को परेशान नहीं करता। उन्हें अधिक से अधिक भगाया जाता है, मारा नहीं जाता। एक सहज गृहस्थ को अब भी उनमें हनुमान जी महाराज दिखते हैं। यह तस्वीर उसी ग्रामीण भाव की उच्चतम अभिव्यक्ति है। इस देश में अब भी बहुत कुछ बदला नहीं है।
पशुओं में भी ईश्वर को देख लेने का पवित्र भाव कुछ हजार वर्ष पूर्व तक समस्त संसार में था, पर अब केवल और केवल भारत में बचा है। पश्चिमी अभद्रता के संक्रमण में फँस रहा भारत यदि इस भाव को भी बचा ले तो स्वयं को सबसे अलग, सबसे पवित्र बनाये रख लेगा। इक्कीसवीं सदी में वही उसकी विजय होगी।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार है)
गोपालगंज, बिहार।