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मोहन भागवत ने हिंदू धर्म में जातिवाद का ठीकरा पंडितों के सिर पर क्यो फोड़ दिया ?

-राजकमल गोस्वामी की कलम से-

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Positive India:Rajkamal Goswami:
संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने हिंदू धर्म में जातिवाद का ठीकरा पंडितों के सिर पर फोड़ दिया है । बाबा साहब अंबेडकर ने अपनी मशहूर पुस्तिका जाति का विनाश ( Annihilation of caste ) में जातिवाद समाप्त करने जो तरकीबें बताईं उनमें एक तो यह कि उच्च जाति वाले निम्न जातियों से रोटी बेटी का संबंध स्थापित करें और दूसरा कि अपने धार्मिक ग्रंथों का सम्मान करना बंद करें ।

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१४० करोड़ की आबादी में मात्र ५ करोड़ ब्राह्मण हैं वे अंतर्जातीय विवाह के लिए पर्याप्त संख्या में न वर उपलब्ध करा सकते हैं न वधू । और विवाह के लिए जाति एकमात्र आधार नहीं होता । विवाह संबंध तय करते समय वर वधू के भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए अभिभावक अनेक दृष्टिकोण से जीवनसाथी तलाश करते हैं ।

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और क्या यह रोटी बेटी का संबंध स्थापित करना केवल उच्च जातियों की ज़िम्मेदारी है ? विवाह सम्बंधी ऑनलाइन पोर्टल्स पर देख लीजिए, हर जाति और वर्ग में सजातीय जीवन साथी को ही प्राथमिकता दी जाती है । यहाँ तक कि डॉक्टर लड़की को डॉक्टर वर ही चाहिए ।

जातियों का निर्माण ब्राह्मणों ने तो बिलकुल नहीं किया । लगभग सारी ही जातियाँ किसी न किसी आर्थिक गतिविधि से जुड़ी हैं उनमें आपस में ऊँच नीच ब्राह्मणों ने नहीं फैलाई । अंबेडकर यह भी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिए । किसी जाति को किसी व्यवसाय को करने को विवश नहीं करना चाहिए । आज कितने बच्चों को अपना भविष्य चुनने की आज़ादी है यह देखना है तो कोटा का चक्कर लगा कर आइए जहाँ बच्चे दिन रात अपने माँ बाप के सपने सच करने के लिए हाड़ तोड़ पढ़ाई करते हैं और बहुत से तो आत्महत्या तक कर लेते हैं । फिर स्वतंत्र भारत में तो अपना व्यवसाय चुनना मौलिक अधिकार है । इसलिए यह शिकायत तो होनी ही नहीं चाहिए ।

अस्पृश्यता यद्यपि प्राचीन भारत में कहीं नहीं दिखती । राम या कृष्ण ने किसी को अछूत समझा हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता । फिर यदि आज समाज में अस्पृश्यता है तो तथाकथित निम्न जातियाँ आपस में अस्पृश्यता क्यों नहीं दूर करतीं अन्तरजातीय विवाह क्यों नहीं करतीं । हालत यह है कि हर जाति अपने से भी निम्न जाति को खोज ही लेती है ।

जातिवाद समाप्त करना सामूहिक ज़िम्मेदारी है और सबसे पहले यह ज़िम्मेदारी उन जातियों की है जो अपने को इसका शिकार समझती हैं ।

अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह पहले भी होते थे । स्वयं बाबा साहब ने ब्राह्मण महिला से विवाह किया था और रामबिलास पासवान ने भी । न अंबेडकर की पत्नी को वह सम्मान मिला और न पासवान के पुत्र को जिसके कि वे हक़दार थे ।

एक विवाह महाराज शान्तनु ने भी किया था जिसकी ऐसी क़ीमत सत्यवती के पिता ने वसूली कि भीष्म जैसे सर्वथा योग्य राजकुमार को राजपाट छोड़ना पड़ा और अंत में महाभारत हो के रहा ।

साभार:राजकमल गोस्वामी-(ये लेखक के अपने विचार है)

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