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प्रेम के चूके हुए अवसर

- सुशोभित की कलम से -

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Positive India:Sushobhit:
इतने सालों के बाद आज जब पीछे लौटकर नौजवानी के भूले-बिसरे दिनों को याद करता हूं तो पाता हूं कि प्रेम और सौभाग्य ने समय-समय पर स्वयं को मेरे सामने प्रस्तुत किया था, किंतु एक मैं ही झेंपू, अनाड़ी और नौसिखिया था, कदाचित् दुर्भागा भी, कि उन्हें स्वीकार नहीं कर पाया।

कॉलेज की उस लड़की की ही बात ले लीजिये, जो मुझे यों लालसा से निहारती थी कि मैं संकोच से भर उठता था। वह क्लास में पहली बेंच पर बैठती थी, मैं दो-तीन क़तार पीछे था। किसी न किसी जतन से, ज़रा-सी आहट पर, वह पीछे मुड़कर देखने का बहाना खोज लेती और मुझ पर नज़रें जमा देती। मैं बौड़म की तरह उसे टुकुर-टुकुर देखता, लेकिन समझ नहीं पाता कि क्या प्रतिक्रिया दूं। वह भी सोचती होगी कि यह भी भला मूरख है।

एक दिन उसके घर में कोई जलसा हुआ। पूरी क्लास को न्योता दिया गया। जलसे में ख़ूब सारे पकवानों के साथ पावभाजी भी बनाई गई थी। किंतु उसके पिता उस दिन शहर से बाहर थे। अगले दिन, उसे जाने क्या सूझी, मेरे पास आकर बोली, “कल पापा घर पर नहीं थे, आज लौट आए हैं। क्या मेरे साथ घर चलोगे, पापा से मिलवाना है?” मैंने कहा, “हां क्यों नहीं।” हम दोनों साथ-साथ घर पहुंचे। उसने मां-पिता से परिचय करवाया कि ये हमारी क्लास के सबसे होनहार स्टूडेंट हैं, तमाम मैडमों के चहेते। वो लोग प्यार से मिले। बहुत सारी बातें हुईं। आख़िर में पापा ने कहा, बेटा कुछ खाकर जाना। सब खाने की मेज़ पर बैठे। देखता क्या हूं, फ्रीज़ से वही बीते दिन वाली पावभाजी निकाली जा रही है। उसे गर्म करके परोसा गया। पापा ने नमक मेरी तरफ़ बढ़ाया। मैंने कहा, “जी नहीं, नमक की ज़रूरत नहीं, मैंने कल ही भाजी चख ली थी, यह बहुत स्वादिष्ट है!”

सभी ठहाका लगाकर हंस पड़े। उस लड़की ने कनखियों से मेरी तरफ़ देखा और संतोष से मुस्कराई, मानो अपनी पसंद के हास्यबोध पर गर्व कर रही हो। शायद यह हर लड़की का सपना होता है कि जिसे वह चाहती है, वह उसके परिवार के साथ सहज ही घुल-मिल जाए।

पर जाने क्यों, बाद उसके, हमारी बात आगे बढ़ नहीं सकी। इसके लिए मेरी ही बेरुख़ी ज़िम्मेदार रही होगी।

और एक वाक़या याद आता है। कॉलेज की ही बात है, एक लड़की अंग्रेज़ी की क्लास में साथ पढ़ती थी। वो बहुत बेतक़ल्लुफ़ और इंटेंस थी। मुझसे बात करते समय वह जब-तब आंख झुकाकर मेरे होंठों को एक नज़र देख लेती। यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि जब कोई लड़की किसी पुरुष के प्रति आकृष्ट होती है तो इस तरह का संकेत करती है। उस समय मैं इसे समझ नहीं पाया था।

एक दिन उसने कहा, चलो लाइब्रेरी चलते हैं। मैं उसके साथ चल दिया। संयोग से उस दिन लाइब्रेरी में न के बराबर स्टूडेंट्स थे। हम उस सेक्शन की ओर चले, जहां अंग्रेज़ी की किताबें थीं। यहां तो दूर-दूर तक कोई नहीं था। अचानक मेरे मन में कौंधा कि इस समय हम दोनों यहां निरे अकेले हैं। हम चाहें तो एक दूसरे को छू सकते हैं, चूम सकते हैं। दिल धड़कने लगा। मुझे लगा, अगले ही पल कुछ होने जा रहा है। पर कुछ हुआ नहीं। हम असहज ख़ामोशी के साथ किताबें देखते रहे। दूर से किसी के बातें करने की आवाज़ सुनाई दी। यहां एकांत में हमें साथ देखकर कोई क्या समझेगा, यह मन ही मन सोचकर हम सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ चले।

सीढ़ियां उतरते समय मैं सोचने लगा, जिस समय मैं धड़कते दिल से यह महसूस कर रहा था कि कुछ होने वाला है, कहीं ऐसा तो नहीं, वह भी उसी समय वह महसूस कर रही थी और यह उम्मीद कर रही थी कि पहल मैं करूं? किंतु जीवन में इन पंक्तियों के लेखक की सबसे बड़ी विफलता यही तो रही कि वो कभी पहल करना सीख नहीं पाया।

अब सोचता हूं तो याद आता है, चश्मा लगाने वाली उस एक अन्य लड़की के मन में भी कुछ तो रहा ही होगा, जिसने सालगिरह पर तब तक केक नहीं काटा था, जब तक मैं नहीं पहुंच गया। और जब मैं लेटलतीफ़ अपनी साइकिल हांकता हुआ उसके घर पहुंचा तो आज भी याद आता है, कि वह पढ़ाकू बर्थडे गर्ल खिड़की में टंगी मेरा इंतज़ार कर रही थी।

लेकिन सबसे दिलचस्प कहानी तो कॉलेज के दिनों के कुछ साल बाद घटित हुई। तब तक मैं काम करने लगा था। जहां काम करता था, वहां मेरी विद्वत्ता कह लें या विद्यानुराग पुकार लें, इन गुणों के चलते एक सज्जन मुझे ‘शास्त्रीजी’ कहकर बुलाते थे। मेरे समीप एक विवाहित स्त्री बैठा करती थीं, जो मुझसे बड़े स्नेह से मिलती थीं। मैं उन्हें दीदी कहता था। एक दिन उन्होंने कहा, “मैं आपके लिए कुछ लाई हूं।” क्या? पूछने पर उन्होंने एक छोटा-सा गिफ़्ट पैक निकाला। उसमें एक कलाईघड़ी थी।

मैं चकित हुआ। कार्यालय में स्नेह से नमस्कार वग़ैरा करना एक बात है, पर ये भेंट? कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा, आप मेरे घर भोजन पर आइये। मैंने कुछेक मर्तबा टाला, पर आख़िरकार हां कर दी। एक शाम समय लेकर उनके घर पहुंचा। उन्होंने स्वागत किया, परिवार से मिलाया। अपनी छोटी बहन से परिचय कराया। अगले दिन छोटी बहन का इम्तिहान था और वो पढ़ाई कर रही थी। मैं उस सरल मध्यवर्गीय प्रतिमा को देखते ही रह गया। दीदी ने गरमा-गरम फुलके उतारे। दाल-भात-सब्ज़ी के साथ थाली सजाई। छोटी बहन ने मुझे भोजन परोसा। उसने सलवार कुर्ती पहनी थी और दुपट्‌टे को कमर में बांध रखा था। भात परोसते समय उसके बाल चेहरे पर गिर गए। उसने अपनी कोमल अंगुलियों से उन्हें पीछे किया। तर्जनी में कांसे की अंगूठी कौंध गई। मैं उसकी उस छवि पर रीझ गया।

क्या दीदी निरंतर यों ही भोजन पर बुलाएंगी? मन ही मन सोचने लगा था। किंतु वैसा फिर हुआ नहीं। दीदी भी कुछ समय बाद काम छोड़कर अन्यत्र चली गईं। बहुत सालों के बाद उनसे भेंट हुई। हम साथ बैठे, चाय पी। उन्होंने मुझसे कहा- “सुशोभित, तुम्हें तब तो नहीं बतलाया, पर आज कहती हूं। वास्तव में, तुम्हें कार्यालय में ‘शास्त्री’ कहा जाता था तो मैं मान बैठी थी कि तुम ब्राह्मण हो। हम लोग भी गुर्जर गौड़ हैं। मैंने अपनी छोटी बहन के लिए तुम्हें पसंद कर लिया था। घर पर सबको तुम्हारे बारे में बता दिया था कि इससे अच्छा लड़का दूसरा नहीं मिलेगा। तुम्हें भोजन पर बुलाने का मक़सद भी यही था कि सब लोग तुम्हें देख लें। लेकिन बाद में पता चला कि तुम ब्राह्मण नहीं हो, हम सबको सचमुच बहुत खेद हुआ।”

मैं अवाक् रह गया। समझ नहीं पाया कि इस पर क्या कहूं। भोजन परोसती उस लड़की की छवि मेरी आंखों के सामने दुहरा गई, जिसके भाग्य में मेरा नाम लिखते-लिखते रह गया था। और तब, मेरा बहुत मन हुआ कि व्याकुल होकर दीदी से कह बैठूं, पर कहा नहीं-

“मैं ब्राह्मण कुल में नहीं जन्मा तो क्या हुआ? कर्म और वर्ण से मैंने स्वयं को सदैव विप्र ही समझा है। मैं मांस नहीं खाता, शराब नहीं पीता, स्नान किए बिना भोजन नहीं करता। सात्विक हूं, विद्याव्यसनी भी, बस जनेऊ धारण नहीं करता किंतु गुणों से तो ब्राह्मण ही हूं। क्या सचमुच अब भी कुछ नहीं हो सकता, दीदी?”

Courtesy:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)

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