माता विमाता-कनक तिवारी की कलम से
बाई का विकल्प विमाता में ढूँढ़ने मैं मजबूर था।
तीन साल की उम्र में सड़क पर ढीला निकर कमीज़ पहने बेतहाशा भाग रहा हूँ। एक हाथ ढीला निकर सम्हालता, दूसरा ताँगेवाले को रोकता। चीखता कभी मैं नारे लगाता। पिछली सीट पर चौड़े लाल काले बाॅर्डर की साड़ी पहने कृशकाय औरत घूँघट डाले लुढ़की पड़ी है। ताँगेवाले की बराबरी पर बलिष्ठ देह का छः फुटा पुरुष कृशकाय स्त्री का पति है। दूर ले जाई जा रही स्त्री मेरी माँ है। बाद में माँ थी। पिता ज़ोर से डाँटते हैं। एक बड़े पत्थर से टकराकर गिर जाता हूँ। घुटने, कोहनी, सिर लहूलुहान हो जाते हैं। तिस पर भी माँ घूँघट हटाकर मुझे नहीं देखतीं।
मैं बच्चों को यादों का लेंस लगाकर ताँगे पर जा रही उनकी दादी की पूरी घटना कंठस्थ कराता हूं। कुछ महीनों बाद एक स्त्री गई जीवन से! दूसरी उसकी स्थानापन्नता बनकर ताँगे में लौटकर आती है। बच्चे सुन रहे हैं पिता के विषादों की हाॅरर कथा। उनकी निगाहें अपनी दुबली पतली माँ से पूछती हैं ’तुम बीमार तो नहीं पड़ोगी मम्मी?’ बिटिया लडै़ती पूछती है, ’तुम और बलिष्ठ तो नहीं बनोगे पापा?’ लड़का कहता है, ’बुद्धू, ये कहानी मम्मी-पापा की कैसे हो सकती है? अपनी वाली दादी तो हैं ही नहीं।’ ’सुनो बच्चों की बात का बुरा नहीं मानते। कहानियाँ नहीं सुनाया करो! उन्हें क्या, मुझे भी नहीं।‘
बच्चों की ओर से पैरवी करती कहती है, ’चलो कल ही दादा दादी से मिला लाते हैं। सब खुलासा हो जाएगा। सौतेली ग्रन्थि बच्चों के मन से निकल जाएगी।’
आततायी दादाजी बच्चों के सगे हैं। अभी वाली दादी उनकी हैं ही नहीं। मेरी माँ की असमय मृत्यु हो जाने के बाद उनका नासूर जिनकी देह को गला रहा था, वे मेरी नानी भी मां की विमाता थीं। उन्होंने नाना से ज़िद की थी, ’रानी को यहीं बुलाओ, वरना मैं अन्न-जल त्यागकर प्राण त्याग दूँगी।’
रानी ऐसी गई कि मैं राजकुमार यतीम हो गया। रानी की विमाता ने मंदिरों में मन्नतें माँगकर रानी की गोद में जिस लाल की भीख माँगी थी। वह लाल आज बेहाल होकर अपनी संतानों से दादी के बोध की भीख मांगना चाहता है।
बाई का विकल्प विमाता में ढूँढ़ने मैं मजबूर था। बच्चे अपने पिता की माँ के कुसमय निधन के समर्थन में नहीं हैं। हमारा कमरा विमाता बाई के आते ही छिन गया। बूढ़ी दादी के चेहरे की झुर्रियों के कन्टूर में हम माँ के गुमनाम किस्सों को छिपाते। दीदी वाचाल थीं। वे ज़्यादा सहती नहीं थीं। उनका विवाह जल्द कर दिया गया।
मैंने अत्याचार से बचने अंतर्मुखी शुतुरमुर्गीय रास्ते तलाश रखे थे। ये रास्ते मुझे अन्दर के गिजगिजेपन को सुखाने से रोकते। दादी भी चली गई। बहुत दिनों तक उन्हें माँ के स्थानापन्न प्रभार में समझता रहा। विवाह के बाद मेरी पत्नी को देखकर परिवार की बड़ी-बूढ़ियों को मेरी माँ की याद हो आई थी। वैसे ही नाक नक्श, वही कद काठी। उसकी पायल की छुनछुन में उमा नानी को तो अपनी रानी ही दिखाई दी थी और वे रो दी थीं। उमा नानी उनकी बेवा बहन थीं जिनकी जायी रानी बेटी का नासूर उनका घाव बनकर बहता रहा था।
पिता ने हिंसक निगाहों से मेरी पत्नी की ओर देखा था। यह शादी उनकी मर्ज़ी के खि़लाफ मेरी मर्ज़ी से हुई थी। बहू के पैर ससुराल में पड़ते ही मेरी माँ की तस्वीर की भूमिका उन्हें अपने से ज़्यादा सार्थक और सगी नज़र आई। पत्नी ने भर नज़र माँ की तस्वीर को देखा। फिर बाई के निर्विकार चेहरे को। पत्नी ने सब कुछ धराशायी कर दिया। अपने स्नेह से बाई को भी।
बाई भी विमाताग्रस्त रही हैं। मेरी माँ भी वैसी ही थीं। मैं भी यदि वैसा ही होने को हुआ तो इनमें भावनाओं का भूचाल कैसा? नानी नहीं होतीं, तो मेरी माँ के नासूर का क्या होता? बाई की माँ होती तो क्या वे उन्हें मेरे पिता के घर भेज देतीं? क्या अपनी विमाता के लिए बाई भी नासूर रही होंगी? क्या विमाताएँ नासूर का दर्द और दुर्गन्ध पालने की मोरियाँ हैं? मेरी दीदी स्मरण और मैं विस्मरण के साथी रहे हैं। पत्नी कहती है, ‘‘तुम हर छल को सायास विस्मरित करते हो।‘‘ मैं कहता हूँ, ‘‘मैं हर स्मरण के साथ सायास छल करता हूँ।‘‘ पत्नी अचानक हँस पड़ती है। कहती है, ‘‘तुम माँ और बाई के मिथकों को गड्डमगड्ड करते सम्बन्धों की सम्भावनाओं के शब्द तलाशते रहते हो।‘‘ मैं सोचता हूँ ठीक कहती है। वह मेरी माँ की अनुकृति लगती है।
हमारे घर में रौद्र-रसिक पिता महापुरुष और मैं कापुरुष रहे हैं। धीरे धीरे ठंडे अहसासों ने विरोध के मुखौटे लगाने शुरू किए। देह की भूतकालिक चोटों की परवाह किए बिना मैंने बग़ावत करने के नोटिस दिए। पिता पर आंशिक असर पड़ा। इससे कुछ मनःस्थितियाँ हमें बाई से सीधे संवाद की भूमिका में खड़ा करती रहीं। वर्षों बाद हमें पता लगा बाई उन्मुक्त हँसी भी हँस सकती हैं। दादी कहतीं, ‘‘तुम्हारी माँ इसी कमरे में निश्छल हँसी हँसती थीं। वह भी केवल तीज त्यौहार की तरह कभी कभार।‘‘
मेरे पिता अपनी सगी माता के लिए नायक नहीं, खलनायक थे। यह सब जब मैं सुनता। खुद को प्रतिनायक बनाता चलता। लगता है प्रतिनायकत्व की नफ़रत का कोई बीज बच्चों के रक्त में आ गया है। यही वजह है जिसके कारण उन्हें दादी ढूँढे नहीं मिलती। मैं पत्नी से पूछता हूँ। वह बताती है, ‘‘विमाता की हायपोथीसिस मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि है। यह ग्रन्थि तुममें है। बाई में भी होगी। दीदी में तो है ही। शायद दादी में भी रही होगी।‘‘ लेकिन वह कहती-‘‘बच्चों में क्यों है?
फिर सरपट कहती है, ‘‘ढूँढो तुम अपनी माँ को उनकी विमाता की छाती में, जो अपनी अनजायी सन्तान के नासूर का सारा मवाद सुखा देना चाहती थीं। उस विमाता की विवशता में ढूँढो जो बाई को एक औरत की मौत के थोड़े समय बाद ही वही सब कुछ महसूसने के लिए भेजने में लाचार है, जो जाने कितना उसने भोगा होगा।‘‘
मैं कहता हूँ, ‘‘बच्चे छोटे हैं तो क्या हुआ? तुम्हारी यह घुट्टी उन्हें भी चटाओ! उन्हें जगाओ और बताओ!‘‘
बच्चे भुनभुनाते हैं, ‘‘हम सब सुन रहे हैं पापा! हम लोग तुम्हारी सब बातें चुपके चुपके सुनते हैं, समझ लेना।‘‘
अचानक टेलीफोन की घन्टी घनघनाती है। लड़का दौड़कर फोन उठाता है। वहीं से चिल्लाकर कहता है, ‘‘दादी का फोन आया है।‘‘
लड़की गिरती पड़ती भागती है, ‘‘दादी से पहले मैं बात करूँगी।‘‘
पत्नी कहती है, ‘‘तुमने तो गणित पढ़ी है न! मैंने नहीं पढ़ी, तो क्या हुआ? सुनो, बच्चों को सिखाओ! माँ के नासूर में बाई के आँसू घोलो! अब वही बच्चों की दादी हैं!‘‘
साभार:कनक तिवारी (फेसबुक)