मार्क्सवादी दास कैपिटल को बंगाल की खाड़ी में बहा चुके हैं
मार्क्सवाद और मार्क्सवादी पर दयानंद पांडेय का विश्लेषण।
Positive India:Dayanand Pandey:
एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह एक कमेंट :
हाहा ! मार्क्सवादी ? हैं , अभी भी देश में ? हम तो पाते हैं मार्क्सवाद की दुकानें हैं। ज़्यादातर मार्क्सवादी दुकानदारों के बच्चे तक तो मल्टी नेशनल कंपनियों में चाकर हैं। कुछ मार्क्सवादी दुकानदार , खुद एन जी ओ चलाते हैं। शेष मार्क्सवादी दुकानदार कांग्रेस की आऊटसोर्सिंग में अपनी नाक ऊंची करते घूमते हैं। मार्क्सवाद और मार्क्सवादी होते देश में तो श्रम क़ानून भी प्रभावी रहते। श्रम क़ानून प्रभावी रहते तो इस कोरोना काल में लाखों श्रमिकों को सड़कों पर हज़ारों किलोमीटर पैदल न जाना पड़ता सपरिवार । अपने ही देश में भिखारी से बदतर जीवन जीने को अभ्यस्त न होना पड़ता इन मज़दूरों को । मार्क्सवादी कहे जाने वाले ट्रेड यूनियन के सारे नेता बहुत पहले दलाल बन गए। उद्योगपतियों ने उन्हें बेभाव खरीद लिया। यह लोग दास कैपिटल को बंगाल की खाड़ी में बहा चुके हैं। कमाने वाला खाएगा , नारा भी कब का विलुप्त हो गया। मार्क्सवादी दुकानदार इतना बिके कि संसदीय लोकतंत्र से निरंतर खारिज होते गए हैं। नंदीग्राम , सिंगूर में जमीर भी बेच खाया मार्क्सवादी दुकानदारों ने। अब तो देश की अधिकाँश आबादी जानती भी नहीं कि मार्क्स और मार्क्सवाद क्या बला है भला। मुश्किल सच यह है कि सर्वहारा , पूंजीवाद से लड़ाई को ताक पर रख कर , जातियों और हिंदू , मुसलमान की नफरत की नागफनी में प्रोपगैंडा फैलाने वाले लोग अब अपने को मार्क्सवादी बताते हैं। मार्क्सवाद और मार्क्सवादी सच्चे अर्थ में शेष रहते इस देश में तो प्रवासी कहे जा रहे श्रमिकों को यह दुर्गति तो न हुई होती इस तरह। मार्क्सवादियों के इसी पाखंड के मद्देनज़र धूमिल याद आते हैं :
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्जा़ गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है
नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार…मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक
हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।
साभार:दयानंद पांडेय-एफबी(ये लेखक के अपने विचार हैं)