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19वीं सदी के दो मेधावी-मस्तक कार्ल मार्क्स(Karl Marx) और चार्ल्स डार्विन(Charles Darwin)समकालीन भी थे। वास्तव में, वर्ष 1859 में जब डार्विन की युगान्तकारी किताब ‘ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़'(Origin of Species )प्रकाशित हुई, उसी साल मार्क्स की भी महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘क्रिटीक ऑफ़ पॉलिटिकल इकोनॉमी’ आई थी। मार्क्स ने तुरंत पहचान लिया कि डार्विन ने अपनी थ्योरी में द्वंद्वात्मक, वैज्ञानिक और भौतिकवादी रीति का परिचय दिया है और एंगेल्स को पत्र लिखकर उन्होंने कहा कि यह थीसिस हमारी सोशल साइंस के लिए काम की साबित हो सकती है।
डार्विन ने क्रिएशनिज़्म का खण्डन कर दिया था। उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि ईश्वर ने मनुष्यों की ‘रचना’ नहीं की है- जैसा कि सदियों से माना जाता रहा था- बल्कि मनुष्य समय की एक लम्बी, धीमी प्रक्रिया में ‘इवॉल्व’ हुए हैं। मनुष्य आज जैसे दिखाई देते हैं, वैसे हमेशा से नहीं थे। ‘एवॅल्यूशन’ की चक्की बहुत मंथर गति से ही सही, लेकिन बहुत महीन पीसती है। इसी के चलते संसार की सारी जैविक प्रक्रियाएँ परिवर्तनशील हैं, म्यूटेबल हैं।
जबकि क्रिएशनिज़्म का मत था कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने ही रूप में, अपनी श्रेष्ठ और पूर्ण कृति की तरह रचा है और एक अर्थ में मनुष्य इस पृथ्वी पर ईश्वर का स्वघोषित प्रतिनिधि था, उसे प्रकृति के दूसरे संसाधनों, प्राणियों पर स्वाभाविक ही एक अधिकार-बोध प्राप्त था। डार्विन ने अपनी सघन-गवेषणा से इस मनगढ़ंत मत की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। ईश्वर का पुत्र बंदर का पुत्र साबित हुआ! चर्च की चूलें हिल गईं।
यहाँ ‘चर्च’ को दुनिया के तमाम धर्मों की प्रतिनिधि-संस्था की तरह देखें (‘स्टेट’ बनाम ‘चर्च’ के परिप्रेक्ष्य में- जो प्रकारान्तर से राजनीति और धर्म का युग्म है), क्योंकि एक स्रष्टा के रूप में ईश्वर का विचार सभी धर्मों के मूल में है। यह धर्मों में निहित बौद्धिक आलस्य का परिणाम है कि अनुल्लंघ्य नियमों से अनवरत संचालित होने वाली सृष्टि तो उन्हें दिखलाई देती है, लेकिन उसकी अंत:क्रियाओं का परीक्षण करने के बजाय वे पहले ही यह मान बैठते हैं कि सृष्टि को किसी स्रष्टा ने रचा है। इतना ही नहीं, वे उस कपोल-कल्पित स्रष्टा के रूप-स्वरूप, आकार-प्रकार, नियम-क़ानून और उसके दूतों-प्रतिनिधियों की भी कल्पना कर बैठते हैं। वैज्ञानिक बुद्धि से अनुशासित मस्तिष्क इस तरह से कभी नहीं सोच सकता। वह तो सृष्टि को संचालित करने वाले नियमों की डटकर पड़ताल करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहेगा और तब तक अपने निर्णयों को स्थगित रखेगा।
सृष्टि को संचालित करने वाले इन्हीं नियमों में से एक- ‘एवॅल्यूशन’ या ‘नेचरल सिलेक्शन’- को डार्विन ने खोज निकाला था। वह अकाट्य था। वर्षों बाद कार्ल सैगन ने इस पर चर्चा करते हुए कहा था कि “हम कितने मूढ़ थे जो हमें यह पहले नहीं सूझा!” क्योंकि यह इतना ‘ऑब्वियस’ जो था। इतना तार्किक।
‘एवॅल्यूशन’ का महल धर्म, ईश्वर और मेटाफिजिक्स के मलबे पर बनाया गया था- यह बात कार्ल मार्क्स को रुचिकर मालूम हुई थी। ऑर्गेनिक नेचर में जिस म्यूटेबिलिटी की खोज डार्विन ने की थी, वह उन्हें सामाजिक संरचनाओं में द्वंद्वात्मकता के फलस्वरूप घटित होने वाले परिवर्तनों के अपने विचार के अनुकूल जान पड़ी थी। हालाँकि डार्विन इस बात के प्रति सतर्क थे कि जैविकी और सामाजिकी दो भिन्न क्षेत्र हैं और एक के नियम दूसरे पर लागू नहीं हो सकते। डार्विन स्वयं अनीश्वरवादी थे, लेकिन सार्वजनिक रूप से ईश्वर का मुखर-निषेध करने से बचते थे। डार्विनवादियों में ईश्वर के प्रश्न पर यह नरम रुख़ तब से अब तक क़ायम रहा है- सिवाय रिचर्ड डॉकिन्स के- जो कि धुर-नास्तिक हैं। डार्विन के विपरीत मार्क्स कहीं रैडिकल-एथीस्ट थे और इससे पहले कान्ट के अज्ञेयवाद और हेगेल की मेटाफिजिक्स की आलोचना कर चुके थे।
1873 में जब ‘कैपिटल’ का पहला खण्ड प्रकाशित हुआ तो मार्क्स ने उसकी एक सौजन्य-प्रति डार्विन को भिजवाई। उस पर दस्तख़त करते हुए मार्क्स ने कहा कि “मैं आपका बड़ा प्रशंसक हूँ।” डार्विन ने जवाबी ख़त भेजा कि “काश मैं आपकी इस भेंट के योग्य होता, लेकिन मैं आपकी पुस्तक को पाकर बहुत सम्मानित महसूस कर रहा हूँ।” अलबत्ता डार्विन ने ‘कैपिटल’ को पढ़ने की ज़ेहमत नहीं उठाई थी। इसके दो कारण थे। एक, वे जर्मन भाषा बहुत अच्छी तरह से नहीं जानते थे। दो, पॉलिटिकल-इकोनॉमी में उनकी अधिक रुचि नहीं थी।
वर्षों बाद कॉमरेड व्ला. इ. लेनिन ने अपने एक लेख में मार्क्स और डार्विन दोनों के महत्त्व को समान रूप से स्वीकारते हुए लिखा कि “जैसे डार्विन ने जैविकी की अंदरूनी प्रक्रियाओं की खोज करके उनमें एक अनुक्रम स्थापित किया था, उसी तरह से मार्क्स ने हमें बताया था कि इतिहास मनुष्यों के जीवन का यांत्रिक संकलन भर नहीं है, उसमें एक अंत:क्रिया है, और उसका आधार अनियमित, अराजक नहीं, बल्कि पूर्णतया वैज्ञानिक और द्वंद्वात्मक है!”
#कार्ल_मार्क्स_लेखमाला_2
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