www.positiveindia.net.in
Horizontal Banner 1

मरते जन आंदोलन, मरते गांधी- कनक तिवारी की कलम से

laxmi narayan hospital 2025 ad

Positive India:Kanak Tiwari:
आजादी के बाद हमारे नेताओं ने कभी नहीं कहा गांधी के सपनों का भारत बनाएंगे। विवेकानन्द का भगवा चोला हिन्दुत्व और संघ परिवार ले गए। स्वामी जी की धर्मनिरपेक्षता को संविधान की समझ से समायोजित करने में उनकी घिग्गी बंध जाती है। अकाली दल और कम्युनिस्ट भगत सिंह के समाजवाद, राष्ट्रीयता और नास्तिकता को एक साथ समेटने से कतराते रहे हैं। आज एक औपचारिक जन संगठन के बिना जनसंघर्ष कैसे हो सकेगा? अब तो जनसंघर्ष की अपील करना राजद्रोह को उकेरना है। संघर्ष मुस्कराहटों पर नहीं सामाजिक क्रोध पर निर्भर होता है। कृष्ण, पांडव, तिलक, गांधी और भगतसिंह में समाजधर्मी क्रोध नहीं होता। तो बार बार इतिहास महाभारत कैसे देखता।

आज भारत को गांधी का देश कहने में शर्म महसूस होती है। इस महान जनयोद्धा को उसके राजनीतिक वंशजों और आलोचकों ने मिली जुली कुश्ती कर संत, राजनेता, लेखक, विचारक और समाज सुधारक जैसा लिजलिजा ही बना दिया है। अब तो खुद को गांधीवादी कहना केवल सात्विक अहंकार भी नहीं बचा। लगता है बोलो तो गोडसे परस्त मुंह नोचना चाहेंगे। बापू के रास्ते पर चलने के बदले वह सड़क ही खोद दी गई है। गांधी को मुअक्किल, किताबी विचारक या हथियार बता देना सबको सुहाता है। महामानव ने सिखाया था अपनी बात पर कायम रहने के लिए हिंसा का इस्तेमाल कतई जरूरी नहीं है। अपने सिद्धांतों और मान्यताओं को किसी के आगे घुटने टेकने के लिए मजबूर नहीं करें। गांधी ने लाठियां और लात घूसों के साथ साथ आखिरकार गोलियां भी खाईं। अभद्र भाषा या मन की कटुता से उनका कोई संबंध नहीं रहा। देश के ताजा हालात में हर पराजित आदमी गांधी के नाम की तोतारटंत के जरिए खुद को ढाढ़स बंधा लेता है।

जनसेवा के लिए गांधी ने गुरबत और फकीरी का चोला ओढ़ा। अंगरेजी जुल्म के खिलाफ दीर्घकालीन आन्दोलन पच्चीस तीस वर्ष भारत में चलाया। तब आजादी आई। उन्होंने पंद्रह बीस वर्ष दक्षिण अफ्रीका में यही किया। वह बीज नेल्सन मंडेला के लगभग आजीवन कारावास में रहने पर ही वृक्ष बना। गांधी के अनुसार अंगरेजी पद्धति की वेश्या जैसी संसद को भारत में नहीं लाया जाना चाहिए था। मसीहा में अंगरेजी नस्ल की संसद के गठन और काम को लेकर कसैलापन बाकी रहा। जीवन गांधी घबराहट से दो चार करता रहा कि भारत का संसदीय भविष्य क्या होगा।

पता नहीं अब कारपोरेटी नस्ल के देश में जनता की ललकार का हश्र क्या होगा? सरकारी व्यवस्था अमरबेलें बनकर हर व्यक्ति और संस्था को चूस रही हैं। मीडियामुगल सरकार के चरणदास बने ऐंठ रहे हैं। कोयले की दलाली, बिजली के गैरजरूरी बंद कारखाने, व्यापारिक-कृषि और तरह तरह के लाइसेन्सशुदा तत्व मीडिया के मालिक हैं। कोई ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग‘ लिखे या ‘हिन्द स्वराज‘ या ‘भारत की खोज‘ या ‘देशेर हालत।’ मीडिया तो जनहितों की पीठ का चाबुक बन ही गया है। एक मशहूर पत्रकार ने खबरिया चैनलों और अखबारों के लेखकों को पत्रकार नहीं स्टेनोग्राफर कहा है। सुपारी लेकर कत्ल कर देना, वैचारिक विरोधियों को नक्सली करार देना, सत्ता प्रतिष्ठान के चुनौतीकारों को अपराध प्रक्रिया संहिता की अमूर्त धारा 151 में बांध देना, शराबखोरी का मुकाबला करती ग्रामीण और कस्बाई महिलाओं को उनके ही पतियों से पिटवाना पुलिस और प्रशासन की दैनिक इन्द्रधनुषी फितरतें हैं। अमेरिका जैसा दोमुंहा, क्रूर, लगभग असभ्य देश विकास का नया विश्वविद्यालय है। वह भारत को बाल प्राइमर पढ़ा रहा है।

बड़े बड़े घोटालों में प्रत्यक्ष प्रमाण के बावजूद न्याय, प्रशासन और राजनीतिक हथकंडों के चलते क्या कुछ होता भी है? सुप्रीम कोर्ट भी आखिर सरकार को कब तक और कितना हड़काए। उच्च न्यायालयों में तो राज्य सरकारों की तूती बोलती रहती है। ऐसे न्यायाधीश कहां बचे हैं जिनकी परिकल्पना संविधान सभा में की गई थी? लोकतंत्र में हाथी की चाल और सरकारी तंत्र में अश्व गति होती है। भारत दुनिया का सबसे बहुल जनसंख्यक लोकतंत्र है। लेनिन और माओ ने जो क्रांतियां कीं। क्या वे पूंजीपतियों के लिए थीं? छोटे से पड़ोसी नेपाल में भी क्या लोकतांत्रिक संघर्ष किसी पूंजीवाद के लिए था। ब्रिटेन के कभी अस्त नहीं होने वाले सूरज के खिलाफ बाकी जन क्रांतियां हुई हैं, वहां क्या हाल है? अमेरिका और इंग्लैंड के नेतृत्व में वैश्विक इजारेदारी की ताकतें जन आंदोलनों को कुचल रही हैं। राजीव गांधी की हत्या में ऐसे तत्वों का हाथ बताया जाता है।

जनता अपनी ही उम्मीदों के लिए आगे नहीं आएगी। तो सरकारों की भूमिका को लेकर गांधी ने जो टिप्पणियां की हैं। वे इतिहास से मिटा दी जाएंगी। संसद का अर्थ यदि सर्वसम्मति हो। तब भी जनता को संसद के विवेकाधिकार पर सवाल पूछने का हक तो होगा। ऐसा अधिकार संविधान न्यायालयों को तो है ही। संसद का फकत अर्थ सांसदों के बहुमत से है तो संसद की सार्वभौमिकता, प्रामाणिकता और वैधता की तुरही बजाते रहने से क्या होगा? समाज वह है जिसमें एक तरह की सर्वानुभूति होती है। वैसी एकता संसद में दिखाई दे तो जनता उसे स्वीकार कर सकती है। संसद में देश की परमाणु नीति बहुमत के कथित आधार पर अमेरिका के सामने घुटने टेक दे। बहुमत के आधार पर हुकूमत चलाने वाली सरकार हर तीन माह में महंगाई कम करने का झूठ बोले। हर चार माह में पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ा दे। उद्योगपतियों से कदमताल करती किसानों और गरीबों के पेट का जरिया छीन ले। बस्तर के मासूम आदिवासी बच्चों के हाथों में इसलिए बंदूकें पकड़ा दे। ताकि वे अपने ही स्वजनों की छाती छलनी कर सकें।

लोक धर्म से लोकमत उपजता है। यह बात संसदीय सत्ता प्रतिष्ठान के मंत्रियों को भी नागवार गुजरती रहती है। उनकी समझ और हिदायत है कि एक बार वोट देने के बाद जनता को गाय की तरह नेताओं के खूंटों से बंधा रहना चाहिए। उसका काम केवल दूध देना है। ब्रिटिश पद्धति की संसदीय प्रणाली में अब भारतीय नस्ल की दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक युवा चुनौतियां कोपलों की तरह फूट रही हैं। लोकतांत्रिक माली विधायिका से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह नवजात पौधों को खुद कुचल देने का अट्टहास करे। भारतीय लोकतंत्र खेत है जिसे सरकारी बदइंतजामी की बाड़ खा रही है। खेत की उपजाऊ ताकत कभी खत्म नहीं होती। बाड़ वह कृत्रिम मेड़ है जिसे कभी न कभी जन सैलाब जरूर बहा देगा।

Leave A Reply

Your email address will not be published.