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लखनऊ का रंग और रुआब

-दयानंद पांडेय की कलम से-

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Positive India:Dayanand Pandey:
इंडिया में एक प्रदेश उत्तर प्रदेश की राजधानी है लखनऊ। राजा राम के प्राचीन कोसल राज्य का यह हिस्सा था कभी। राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को इसे सौंप दिया था। पहले इस का नाम लक्ष्मणपुरी था। बदलते-बदलते लखनपुरी हुआ फिर लखनपुर और अब लखनऊ। लखनऊ बहुत शानदार शहर है। यहां का लजीज खाना और नवाबी नज़ाकत की कहानियां बहुत हैं। लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों की अपनी ही शान है। लखनऊ का चिकन का कपड़ा भी दुनिया भर में मशहूर है। जैसे दिल्ली में लाल क़िला है , पुराना क़िला है , कुतुबमीनार है। वैसे ही लखनऊ में लक्ष्मण टीला है। बड़ा इमामबाड़ा है। हुसैनाबाद इमामबाड़ा है जिसे छोटा इमामबाड़ा भी कहते हैं। रूमी दरवाज़ा है। घंटाघर है। रेजीडेंसी है। बनारसी बाग़ है। दिलकुशा है। और भी बहुत कुछ।

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बड़ा इमामबाड़ा में एक भूलभुलैया भी है। अगर आप लखनऊ आए और भूलभलैया नहीं देखा तो क्या देखा। 1784 में अवध के नवाब आसफउद्दौला ने इस भूलभुलैया को बनवाया था। एक जैसे घुमावदार रास्ते ही इस की खासियत है। लोग कहते हैं दीवार के कान नहीं होते। पर भूलभुलैया की दीवारों के कान भी हैं। कहीं भी कुछ भी कोई बोले , कितना भी धीरे से बोले , फुसफुसा कर बोले , सब को , सब तरफ सुनाई देता है। कहीं कोई दियासलाई भी जलाए तो सभी को पता चल जाए। भूलभुलैया के दीवारों की नक्काशी और कलाकारी भी खूब है। भूलभुलैया की दीवारें सीमेंट , सरिया से नहीं बनाई गई हैं। इन दीवारों को उड़द व चने की दाल , सिंघाड़े का आटा , चूना , गन्ने का रस , गोंद , अंडे की जर्दी , सुर्खी यानी लाल मिट्टी , चाश्नी , शहद , जौ का आटा और लखौरी ईंटों से बनाया गया है। भूलभुलैया के बीचोबीच बने पर्शियन हाल की लंबाई 165 फ़ीट है। बिना किसी अतिरिक्त पिलर के। आसफउद्दौला ने इस भूलभुलैया को असल में सुरक्षा कारणों से बनवाया था। यहां सुरक्षाकर्मी तैनात रहते थे। भूलभुलैया का एक हिस्सा जलमहल भी है। इसी जलमहल में खजाना रखा जाता था। भूलभुलैया में खड़े हो कर सीधे गोमती नदी के उस पार दूर-दूर तक देखा जा सकता था कि कोई आक्रमणकारी तो नहीं आ रहा। भूलभुलैया से कई सुरंगें भी कई शहरों को जाती थीं , ऐसा कहते हैं। अब सभी सुरंगें बंद हैं। और जलमहल भी। कहा जाता है कि भयानक अकाल से परेशान जनता की मदद के लिए आसफउद्दौला ने इस भूलभुलैया को बनवाया था। यह वही इमामबाड़ा है जहां नवाब वाजिदअली शाह को अंगरेजों ने गिरफ्तार किया था और उन्हें कोलकाता ले गए। वाजिदअली शाह ने यहीं मशहूर गीत बाबुल मोरा नइहर छूटो ही जाए तभी लिखा था।

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बड़ा इमामबाड़ा से थोड़ी ही दूर पर हुसैनाबाद इमामबाड़ा है जिसे छोटा इमामबाड़ा भी कहते हैं। यह आज भी सजा-संवरा दीखता है। इसे अवध के तीसरे बादशाह मुहम्मद अली शाह ने बनवाया था। 1837 और 1842 के बीच मुहम्मद अली शाह ने अवध में शासन किया। इसी बीच उन्हों ने इसे बनाया। छोटे इमामबाड़े का सबसे बड़ा आकर्षण है, इस भवन में सजे हुए बेल्जियम कांच की कीमती झाड़ फानूस, कंदीलें, दीवारगीरियां और शमादान। इमामबाड़े पर कमरखीदार सुनहरा गुम्बद है, जिसके बुर्जों की खूबसूरती देखते बनती है। रूस के एक टूरिस्ट ने इसे क्रेमलिन ऑफ इंडिया भी कहा था।

जैसे दिल्ली में इंडिया गेट है। मुंबई में गेट वे आफ इंडिया है। वैसे ही लखनऊ में रूमी दरवाज़ा है। लखनऊ का प्रवेश द्वार। इसे तुर्कीश द्वार के नाम से भी जाना जाता है, जो 13 वीं शताब्‍दी के महान सूफी फकीर, जलाल-अद-दीन मुहम्‍मद रूमी के नाम पर पड़ा था। सन् 1784 में 60 फुट ऊंचे रूमी दरवाज़ा का निर्माण भी कहते हैं अकाल के दौरान ही लोगों की मदद के लिए आसफउद्दौला ने बनवाया था। आसफउद्दौला के इस तरह लोक कल्याणकारी कामों के कारण ही एक उक्ति बहुत मशहूर है। जिसे न दे मौला , उसे दे आसफउद्दौला ! न्‍यूयार्क टाइम्‍स के संवाददाता रसेल ने कभी लिखा था कि रूमी दरवाजा से छत्‍तर मंजिल तक का रास्‍ता सब से खूबसूरत और शानदार है जो लंदन, रोम, पेरिस और कांस्‍टेंटिनोपल से भी बेहतर दिखता है।

वैसे तो भारत के तमाम शहरों में घंटाघर है। दिल्ली में भी। लेकिन लखनऊ का घंटाघर भारत का सब से ऊंचा घंटाघर बताया जाता है। 1887 में 221 फीट ऊंचे इस घंटाघर का निर्माण नवाब नसीरूद्दीन हैदर ने सर जार्ज कूपर के आगमन पर करवाया था। वे संयुक्त अवध प्रांत के प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर थे। इसे ब्रिटिश वास्तुकला के सब से बेहतरीन नमूनों में माना जाता है। गोमती नदी के किनारे रेज़ीडेंसी का निर्माण भी 1775 में अंग्रेजों को रहने के लिए आसफुद्दौला ने शुरू करवाया था जिसे नवाब सादत अली खान द्वारा पूरा किया गया। 33 एकड़ में फैले रेजीडेंसी में अंग्रेजों ने अपना मुख्यालय बनाया था। रेजीडेंसी में कई सारी ऐतिहासिक इमारतें हैं। रेजीडेंसी का इतिहास बताने के लिए यहां आज भी एक म्यूजियम है। लगभग खंडहर में तब्दील होती रेजीडेंसी पर्यटकों की फिर भी प्रिय जगह है। रेजीडेंसी में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर अत्याचार की हज़ारों कहानियां दफ़न हैं। तमाम तहखानों वाले इस रेजीडेंसी में अंगरेजों का तोपखाना , ट्रेजरी भी था। फांसी घर भी। यहां भयानक लड़ाई हुई थी अंगरेजों और स्वतंत्रता सेनानियों के बीच।

नवाब वाज़िदअली शाह की बेग़म हजरतमहल ने अंगरेजों के खिलाफ बड़ी निर्णायक लड़ाई लड़ी थी और कोलकाता तक लड़ने गई थीं। उन की याद में बेगम हज़रत महल पार्क रेजीडेंसी से थोड़ी दूर पर ही बनाया गया है। दिलकुशा भी लखनऊ की महत्वपूर्ण जगह है। 1800 में इसे नवाब के दोस्त ब्रिटिश मेजर गोर आस्ले ने बनवाया था। इस भव्य कोठी की खासियत है कि इस में कोई एक आंगन नहीं है। तब जब कि उन दिनों आंगन का खूब चलन था। इंग्लैण्ड के नार्थम्बरलैंड के सिटान डेलवाल हॉल के पैटर्न पर बनाई गई दिलकुशा कोठी गोमती नगर के किनारे है। नवाबों के शिकार लॉज के रूप में इस का खूब इस्तेमाल हुआ। अब दिलकुशा भले खंडहर में तब्दील है पर खंडहर बताते हैं कि इमारत कभी बुलंद थी।

हिंदी और उर्दू के तमाम मशहूर लेखकों के लिए जाने जाने वाला लखनऊ बागों का भी शहर है। चारबाग , कैंसरबाग़ , आलमबाग , खुर्शीदबाग , डालीबाग , ऐशबाग , सिकंदरबाग , बनारसीबाग़ जैसे तमाम नाम हैं। पर अब यह सारे बाग़ मुहल्लों में बदल गए हैं और लोग यहां रहते हैं। बनारसीबाग़ में ही अब चिड़ियाघर है। जब कि सिकंदरबाग़ में नेशनल बॉटोनिकल गार्डेन का मुख्यालय है। हां , अब कुछ नए पार्क बने हैं। बहुत आलिशान और भव्य पार्क। अंबेडकर पार्क , लोहिया पार्क , जनेश्वर मिश्र पार्क , कांशीराम पार्क और रमाबाई पार्क। जनेश्वर मिश्र पार्क एशिया के सब से बड़े पार्क में शुमार है। जब कि रमाबाई पार्क दुनिया का सब से बड़ा पार्क है , जहां एक साथ पांच लाख लोग एक साथ इकट्ठा हो सकते हैं। दुनिया में अभी ऐसी कोई दूसरी जगह नहीं है जहां एक साथ पांच लाख लोग इकट्ठा हो सकें। लखनऊ की बात हो और यहां के दशहरी आम का ज़िक्र न हो , यह हो ही नहीं सकता। मलीहाबाद के दशहरी आम की मिठास और खुशबू दुनिया भर में मशहूर है। लखनऊ की रेवड़ी , गजक जैसी मिठाइयां भी बहुत मशहूर हैं। कुल्फी फालूदा भी। पान मलाई के तो कहने ही क्या। लखनऊ के टुंडे के कबाब और सींक कबाब भी बहुत मशहूर हैं। लखनऊ में अब मेट्रो भी है , गगनचुंबी इमारतें भी। लखनऊ अब आई टी हब बनने की तरफ बहुत तेज़ी से अग्रसर है। दिल्ली में अगर चांदनी चौक है तो लखनऊ में उसी की तरह अमीनाबाद है। दिल्ली में अगर कनॉट प्लेस है तो लखनऊ में हज़रतगंज है। दिल्ली में नई दिल्ली है तो यहां भी नया लखनऊ है। शानदार एयरपोर्ट है। कई सारे रेलवे स्टेशन और अंतरराज्यीय बस अड्डे हैं। एक से एक शानदार और रुआबदार मॉल और वेब हैं।

लखनऊ जब बसा था तो गोमती नदी के किनारे बसा था। पर अब लखनऊ को देख कर लगता है कि लखनऊ गोमती नदी के किनारे नहीं , गोमती नदी अब लखनऊ के बीच से बहती है। जैसे लंदन में टेम्स नदी। लखनऊ का वैभव अब लंदन से कम भी नहीं। रहते थे कभी यहां नवाब , और अंगरेज भी। पर अब यहां अंगरेजी जानने वाले अंगरेजियत में तर-बतर लोग भी बेशुमार मिलते हैं। नवाब और उन की नवाबी तो बस अब क़िस्से कहानियों में दफ़न हैं। लखनऊ अब राजनीति का गढ़ है। दिल्ली और देश की राजनीति की दशा और दिशा भी अकसर यहीं से तय होती है।

साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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