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प्रेम पत्र: इसलिये नहीं कि तुम लिखती थीं कविताएँ!

-सुशोभित की कलम से-

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Positive India:Sushobhit-:
इसलिये नहीं कि तुम लिखती थीं कविताएँ!
ना इसलिये कि तुम्हारी आँखों में था सजल सम्मोहन और आवाज़ में प्रतीक्षा का ताप।
या इसलिये कि अपने दुपट्टे में सम्हालती थीं तुम फ़ीरोज़ी लहरें और यूँ चुराती थीं बदन, मानो मन पर भी पहना हो कपास।

और ना इसलिये कि काँस की सुबहें और सरपत की साँझें तुम्हारे पूरब-पच्छिम थे!

जल में तुम्हारे प्रतिबिम्ब-सी थी वह पुलक, जो हमेशा तुम्हारे साथ चली आती थी, चकित करती मुझे।

जब गूँथती थीं चोटी तो हुलसते थे चन्द्रमा के फूल, जिन्हें बड़ी बेतक़ल्लुफ़ी से पुकारती थीं तुम रजनीगंधा।

और काँच की चिलक जैसी मुस्कराहट तुम्हारी लाँघ जाती थी देहरियाँ, जबकि अहाते में ऊँघता रहता था दुपहरी का पत्थर। लेकिन इन सबके लिये भी नहीं।

ना, इसलिये नहीं कि इतनी दूर से इतनी देर तलक सोचा था मैंने तुम्हें कि मेरी सोच में जैसे एक डौल बन गया था तुम्हारा, एक आदमक़द तसव्वुर, जिसकी एक तस्वीर बन गई थीं तुम, अंतत: जब कई दिनों का धान पका! ना, इसलिये भी नहीं!

इसलिये तक नहीं कि इतनी कोमलता से पुकारा था तुमने मेरा नाम कि मैं रूई का फाहा बन गया था भींजा हुआ और बारिश मेरी छत थी, इसलिये तक नहीं!

बल्कि इसलिये कि कोई “इसलिये” नहीं था दिसम्बर के शब्दकोश में उस दिन, जब मिले थे हम। केवल गाछपकी प्रतीक्षा थी धूपधुले वर्षों के शहद से भरी।

कि जो मैं न होता तुम्हारे बरअक्स और तुम मेरे, तो ढह जातीं नमक की मीनारें, और पाला-सा पड़ जाता रेशम और रोशनियों पर, और एक सेब की ओट हो जाती पृथ्वी, और दूरियों की बर्फ में गलती रहतीं मेरे हिस्से की तमाम फ़रवरियाँ।

कोई “इसलिये” नहीं था!

केवल एक स्वप्न था, किंतु स्वप्न तो कोई कारण नहीं होता। केवल एक विकलता थी, जिसके कोई वर्णमाला तक नहीं।

और केवल यह नियत था कि मैं उचारूँ तुम्हारे नाम का ध्रुवतारा, हर बार जब खुले भोर की गाँठ!

Sushobhit

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