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लंदन का प्रसिद्ध फ़ुटबॉल क्लब है- चेल्सी। दो सीज़न पहले उसने चैम्पियंस लीग जीती थी। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद चेल्सी यूरोपियन मुक़ाबलों के लिए क्वालिफ़ाई भी नहीं कर पाई। वर्तमान में वह इंग्लिश प्रीमियर लीग में 12वें स्थान पर है। यूक्रेन में चल रही लड़ाई से सुदूर इंग्लैंड के एक फ़ुटबॉल क्लब के पराभव का क्या सम्बंध हो सकता है? सम्बंध यह है कि चेल्सी के मालिक एक रूसी ओलिगार्क (धनकुबेर) हुआ करते थे- रोमान अब्रामोविच। जब युद्ध शुरू हुआ तो नाटो देशों ने रूस को दंडित करने के मक़सद से पश्चिम में बसे रूसी धनाढ्यों पर सैक्शंस लगाने शुरू कर दिए। रोमान अब्रामोविच व्लादीमीर पुतिन के क़रीबी माने जाते हैं। यूके ने उनके अकाउंट्स फ्रीज़ कर दिए। उन्हें चेल्सी छोड़ना पड़ा। वे अत्यंत कुशल प्रशासक और फ़ुटबॉलप्रेमी थे। उनकी विदाई के कारण चेल्सी का पतन हो गया।
वैश्वीकरण इस तरह से काम करता है। वह विभिन्न देशों को अपनी रणनीतियों का पुनर्सीमन करने को भी विवश करता है। जैसे, जब पश्चिमी ताक़तों ने रूस पर पाबंदियाँ लगाईं, तो न केवल रूस बल्कि पूरी दुनिया को यह अहसास हुआ कि यह डॉलर और यूरो की दादागिरी है, क्योंकि वो वैश्विक मौद्रिक प्रणाली का नेतृत्व करते हैं। नतीजा ये रहा कि रूस अपने रूबल को आगे बढ़ाने लगा। अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता जगज़ाहिर है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है की तर्ज़ पर रूस और चीन एक-दूसरे के क़रीब आने लगे, यों भी ऐतिहासिक रूप से स्तालिन-माओ मैत्री प्रसिद्ध रही है। इस साल मार्च में शी जिनपिंग मॉस्को गए थे। वहाँ रूस ने युआन को अपनी वैकल्पिक मुद्रा बना लिया। यानी डॉलर-यूरो के सामने रूबल-युआन की युति बनी। आज स्थिति यह है कि रूस भारत से भी यही कहता है कि वह उसको तेल का भुगतान चीनी युआन में करे। जब भारत युआन में भुगतान नहीं कर पाया तो सऊदी दिरहम में भुगतान का निर्णय लिया गया।
अतीत में जो शीतयुद्ध था, वह अमेरिका बनाम सोवियत संघ का था। वह पूँजीवाद बनाम साम्यवाद का विचारधारागत संघर्ष था। दुनिया दो भागों में बँटी हुई थी। लेकिन आज जो शीतयुद्ध चल रहा है, वह पश्चिम और अन्य का है और इसमें शक्ति के सिवा कोई और विचारधारा नहीं है। एक तरफ़ नाटो ताक़तें हैं। दूसरी तरफ़ रूस और चीन हैं। कौन किसका गठबंधन सहयोगी बनेगा, अब प्रश्न यह है। सऊदी अरब ऐतिहासिक रूप से अमेरिका का सहयोगी रहा है, पर अब वह चीन की तरफ़ खिसक रहा है। चीन अरब-ईरान के बीच सुलहें करवा रहा है।
मैं आपको बताऊँ, न केवल सऊदी अरब, बल्कि समूचा मुस्लिम जगत कालांतर में रूस-चीन धुरी का एलाई बनेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है। पश्चिम से इस्लामिक जगत टकराव की स्थिति में है। अलबत्ता रूस और चीन से इस्लामिक जगत के सम्बंध ऐतिहासिक रूप से कोई बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। चीन का शिनशियांग-दमन प्रसिद्ध है। रूस में ईसाइयत का ज़ोर है और सोवियत-युग में वहाँ एथीस्ट हुकूमत थी। इसके बावजूद जो ग्लोबल मुस्लिम कम्युनिटी है- आप पाएँगे कि वो स्ट्रैटेजिकली शिनशियांग में उइग़र मुसलमानों के शोषण पर मौन साधे रहेगी, इसके बजाय फ़लस्तीनियों, कश्मीरियों, अल्जीरियाइयों, मोरक्कनों, ट्यूनीशियाइयों, रोहिंग्याओं आदि को अपना नैतिक समर्थन हरदम मुहैया कराएगी। उसकी नज़र चीन से ज़्यादा फ्रांस पर रहेगी, रूस से ज़्यादा इज़रायल पर। फ्रांस और इज़रायल वेस्ट के एलाई हैं। नॉर्थ कोरिया चीन के साथ जाएगा, साउथ कोरिया अमरीका के साथ। जापान और ऑस्ट्रेलिया वेस्ट से कोसों दूर होने के बावजूद वेस्ट के साझेदार रहेंगे।
भारत ने रूस से अभी तक बनाकर रखी थी, पर बहुत समय तक नहीं रख पाएगा। अमेरिका ने यों ही नरेंद्र मोदी को राजकीय आतिथ्य नहीं दिया था। मनोवैज्ञानिक रूप से, और रणनीतिक रूप से भी, आज भारत अमेरिका के पाले में है। समस्या यह है कि अमेरिका रूस और चीन से बहुत दूर है, जबकि भारत उनके पड़ोस में है। विश्व युद्धों में अमेरिका की सक्रिय सहभागिता के बावजूद पर्ल हार्बर के सिवा उसे कोई जनहानि नहीं उठानी पड़ी थी, नरसंहार यूरोप में हुए और एटम बम जापान पर गिरे। आज भी लड़ाई यूक्रेन में हो रही है, अमेरिका उसे अपने हथियार भर सप्लाई कर रहा है। अमेरिका अपना पल्लू छुड़ाना अच्छे से जानता है। पर भारत के सामने तो इमीजिएट क्राइसिस है- रूस, चीन और पाकिस्तान के शैतानी गठबंधन का। व्लादीमीर पुतिन भारतीय राष्ट्रवादियों में अतिशय लोकप्रिय हैं, लेकिन मैं देख रहा हूँ अधिक समय तक रहेंगे नहीं।
जब को-विड आया था, तब वैश्वीकरण की पोल खुल गई थी। दुनिया के देश एक-दूसरे से वैक्सीन-तकनीकी साझा करने को लेकर संकोच करते रहे थे। आज अमेरिका ने नीति बना ली है कि आला दर्जे की डिफ़ेंस टेक्नोलॉजी- जिसे भारत को देने का वादा किया गया था पर वादा पूरा किया नहीं- और एआई टेक्नोलॉजी को किसी से शेयर नहीं करेगा- चीन से तो हरगिज़ नहीं। वह अमेरिका में बसे चीनियों को भी कैंसल कर रहा है। ताईवान सेमीकंडक्टर बनाता है और चीन उसके पड़ोस में होने के बावजूद अमेरिका उसका निकटतम सहयोगी है। भविष्य की वैश्विक ताक़तें तकनीकी कुशलता पर निर्भर होंगी, लेकिन रूस, चीन और इस्लामिक जगत का ख़ूंख़ार गठजोड़ संघर्षों को विकट बनाने में कसर नहीं छोड़ेगा। नाटो आज दुनिया की सबसे ताक़तवर संस्था है- यूएन से भी ज़्यादा- लेकिन अगर निर्णायक संघर्ष में उसकी जीत हुई भी, तो तब तक दुनिया का बड़ा हिस्सा तहस-नहस हो चुका होगा।
दुनिया धीरे-धीरे क्लीन एनर्जी की तरफ़ शिफ्ट हो रही थी कि यूक्रेन युद्ध ने हालात को और पीछे धकेल दिया। अमरीका और यूरोप ने रूस से तेल और गैस लेने से इनकार किया तो सऊदी अरब की चाँदी हो गई। नतीजा, जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल पहले से भी और अधिक बढ़ गया है और कार्बन उत्सर्जन की चिंताएँ केवल गोष्ठियों का विषय रह गई हैं।
ये अफ़सोस की बात है कि वैश्वीकरण का महास्वप्न एक ऐसे समय में टूटकर बिखर रहा है, जब दुनिया को साझा अंतरराष्ट्रीय प्रयासों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है- क्लाइमेट चेंज, फ़ूड क्राइसिस, आने वाले वक़्तों की महामारियों का सामना और तकनीकी सहभागिता- ये सब किसी एक महाशक्ति या महाद्वीप के बस का रोग नहीं है। क्योंकि दुनिया चाहे जितनी विभाजित हो, पृथ्वी तो एक ही है!
इस एनालिसिस का स्क्रीनशॉट लेकर रख लीजिये, आने वाले दस सालों में यह सही साबित होने जा रहा है!
साभार:सुशोभित-(ये लेखक के अपने विचार है)