लता जी केवल एक कलाकार मात्र नहीं थी बल्कि स्वतंत्र भारत मे महिला सशक्तिकरण की सर्वाधिक सशक्त प्रतिनिधि थीं
-सतीश चन्द्र मिश्रा की कलम से-
Positive India:Satish Chandra Mishra:
आज यह नया इतिहास बनना ही चाहिए था…
स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के दैवीय सुर और स्वर के दिव्य संसार की कथाएं पिछले 7 दशकों से कही सुनी जा रही हैं। अभी कई दशकों, संभवतः शताब्दियों तक यह कथाएं कही सुनी जाएंगी। आज उनके महाप्रयाण पर संचार माध्यमों में उन्हीं कथाओं की सुनामी चल रही है। मीडिया, सोशलमीडिया में उनको दी जा रही श्रद्धांजलियों की बाढ़ आयी हुई है। स्वरकोकिला भारतरत्न लता मंगेशकर जी को मात्र एक महानतम गायिका के रूप में याद करना उनके व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं करता।
लता जी केवल एक कलाकार मात्र नहीं थीं। स्वतंत्र भारत मे महिला सशक्तिकरण की सर्वाधिक सशक्त, सर्वाधिक समान्नित, सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रतिनिधि थीं लता जी।
आज से 80 वर्ष पूर्व रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताओं बाधाओं बंधनों से संक्रमित गुलाम भारत में पिता की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात एक 13 वर्षीया बच्ची ने अपनी तीन बहनों एक भाई तथा विधवा मां के भरण पोषण की जिम्मेदारी अपने किशोर कंधों पर उठा ली थी। जरा कल्पना करिए उस किशोरी के जीवन संघर्ष, उसके मानसिक शारीरिक बोझ की। संघर्ष के उस अग्निकुंड में तप कर स्वतंत्र भारत में वह किशोरी लता मंगेशकर के नाम से अनमोल हीरे की भांति इस प्रकार दमकी कि 7 दशकों तक उसकी दमक के आसपास भी कोई नहीं पहुंच सका। भविष्य में भी ऐसी कोई संभावना नहीं है।
संघर्ष के उस अग्निकुंड में तप कर लता जी का आत्मसम्मान स्वाभिमान भी इस्पाती दृढ़ता के साथ उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गया था।
आज भी पुरुषों के वर्चस्व वाली पुरुष प्रधान फ़िल्म इंडस्ट्री में आज से लगभग 60 वर्ष पूर्व म्यूजिक कम्पनियों के विरुद्ध रॉयल्टी को लेकर लता जी ने जब जंग छेड़ दी थी तो तब के प्रसिद्धि गायक मोहम्मद रफी किन्हीं कारणों से म्यूजिक कम्पनियों के पक्ष में उनके साथ खड़े हो गए थे। समझौते के लिए बुलायी गयी बैठक में जब उन्हें समझाने का प्रयास किया गया तो उन्होंने लता जी की तरफ इशारा करते हुए कह दिया था कि “मुझे नहीं इन महारानी को समझाओ।” मोहम्मद रफी के इस कटाक्ष को भांप कर लता जी ने तत्काल जवाब दिया था कि हां मैं महारानी ही हूं।” उनके इस जवाब से तिलमिलाए मोहम्मद रफी ने कहा था कि “आज से मैं तुम्हारे साथ गीत नहीं गाऊंगा।” इस बड़ी धमकी का भी लता जी ने तत्काल जवाब दिया था कि “आज से मैं खुद तुम्हारे साथ कोई गीत नहीं गाऊंगी।” कई वर्षों तक दोनों ने एक साथ नहीं गाया। मीडिया में वर्षों तक दोनों का यह विवाद सुर्खियां बनता रहा। लेकिन लता जी नहीं झुकीं। म्यूजिक कम्पनियों को रॉयल्टी की लता जी की शर्त माननी पड़ी और मोहम्मद रफी भी लता जी के साथ गाने लगे।
पारंपरिक भारतीय साड़ी, माथे पर बिंदी में सदा नजर आईं लता जी की अधिकृत जीवनी के जीवनीकार, उनके अनेक विदेशी दौरों पर साये की तरह उनके साथ रहे हरीश भिमानी ने लिखा है कि सिडनी ऑपेरा, रॉयल अलबर्ट हॉल लंदन, मेडिसन स्क्वायर न्यूयार्क समेत दुनिया के अन्य अनेक प्रसिद्ध सभागारों में अपने कार्यक्रमों में भी लता जी पारंपरिक भारतीय अभिवादन शैली में दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की मुद्रा में ही दर्शकों का अभिवादन करती थीं। देश और दुनिया के प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के साथ भेंट के दौरान भी अपनी इस पारंपरिक भारतीय अभिवादन शैली में लता जी ने कभी कोई परिवर्तन नहीं किया। हाथ मिलाकर हाय हेलो करने वाली अभिवादन शैली को उन्होंने आजीवन स्वंय से दूर रखा।
उनकी वैचारिक स्वतंत्रता इतनी प्रखर इतनी मुखर थी कि वीर सावरकर के सुनियोजित, सुसंगठित, अत्यधिक शक्तिशाली राजनीतिक वैचारिक विरोध के विरुद्ध चट्टान की तरह अडिग रहीं। वीर सावरकर के प्रति अपने स्नेह और सम्मान की भावना को लता जी मुखर होकर अभिव्यक्त करने से कभी नहीं हिचकीं। जब पूरा सत्तातंत्र, पूरा मीडिया और लगभग पूरा बॉलीवुड आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध जमीन आसमान एक किए हुए था उस विपरीत और विषम दौर में भी नरेन्द्र मोदी के प्रति अपने स्नेह और सम्मान तथा उनकी क्षमताओं में अपना पूर्ण विश्वास व्यक्त करने में लता जी ने कभी कोई संकोच नहीं किया।
लता जी के व्यक्तित्व की इन विशेषताओं का कारण उनके जीवनीकार हरीश भिमानी की इस टिप्पणी से पता चलता है… “लता जी को केवल 2 चीजों से प्यार था, एक संगीत और दूसरा राष्ट्र। वो हमेशा कहती थीं कि भारत के झंडे को मैं सबसे ऊंचा देखना चाहती हूं।”
देवी मां सरस्वती का भारत मां को अनुपम उपहार, स्वरकोकिला भारतरत्न लता मंगेशकर जी के निधन पर 2 दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा कर, उनको अंतिम विदाई देने देश का प्रधानमंत्री अपने सारे पूर्व निर्धारित कार्यक्रम रद्द कर स्वंय पहुंचा। बॉलीवुड के इतिहास में यह पहला ऐसा प्रकरण है। लेकिन आज यह नया इतिहास बनना ही चाहिए था क्योंकि लता जी इसी अभूतपूर्व सम्मान के साथ विदाई की अधिकारी थीं।
साभार:सतीश चंद्र मिश्रा-(ये लेखक के अपने विचार है)