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कोसी तटबंध टूट गया। इस लोकतंत्र में कोई सरकार नहीं चाहेगी कि बाढ़ न आये

-सर्वेश कुमार तिवारी की कलम से-

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Positive India: Sarvesh Kumar Tiwari:
खबर यह है कि कोसी तटबंध टूट गया। बांध का टूटना किसी के दिल टूटने जैसा नहीं होता। यह एक साथ लाखों अमीरों को दरिद्र बना देता है। जब सोने की चूड़ियों से भरे हुए खूबसूरत हाथ हेलीकॉप्टर से गिरने वाले एक किलो चिउड़ा और एक कनवा गुड़ वाले पैकेट की ओर बढ़ने लगें तो एक साथ बहुत कुछ टूटता है। दिल, स्वाभिमान, अहंकार, और भी बहुत कुछ…

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कोसी के तट पर बसने वाले पुराने लोग कहते थे- कोसी मइया ससुराल से रूठ कर मायके की ओर भागी जा रही हैं। सास ने झोंटा नोच कर मारा होगा, ननदें पिता को दरिद्र बता कर गाली दी होंगी… बेटी सब बर्दाश्त कर ले, बाप को दी गयी गाली बर्दाश्त नहीं करती। कोसी मइया कैसे करतीं? वे रूठ कर भाग रही हैं नइहर… बाबूजी के देश, भइया के देश…

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आज का सच यह नहीं। नहीं दी ननदों ने गाली, नहीं मारा सास ने झोंटा नोंच कर… उनके बेटों ने ही उनकी छाती पर बड़े बड़े पत्थर रख कर बांध बनाया है। उनकी धार रोकी है, उनकी स्वतंत्रता छीनी है। पहाड़ों से गिरते झरने कुछ और नहीं, कोसी मइया के केश हैं, जिन्हें बांध कर रखा है उनके राकस बेटों ने। जब उन्हें मौका मिलता है, वे रस्सी तोड़ कर भागती हैं। खुले लहराते केशों के साथ… सबकुछ उजाड़ती, तहस-नहस करती… शास्त्र कहते हैं- किसी स्त्री के बाल नहीं पकड़ते, उसकी एक दृष्टि भर सबकुछ नाश कर देती है। कोसी मइया सब नाश कर रही हैं।

इधर गंडक, उधर कोसी। नदी जब अपनी मर्यादा तोड़ती है तो प्रलय आता है। जो गाँव एक बार नदी में समा जाँय वे फिर नहीं बसते। जीवन भर एक ही बरगद के नीचे ताश खेलने वाले भिखारी पांडे और मनेजर चौधरी को रामपुर से नदी उजाड़ती है, तो एक की झोपड़ी बिसुनपुरा में बनती है और दूसरे की नया गाँव में… फिर वे कभी साथ नहीं बैठ पाते… उसी दिन भिखारी पांडे के दोहे चूक जाते हैं और ओरा जाता है मनेजर चौधरी का आल्हा… सब खत्म, सब साफ, सफाचट…

सोचिये न! तीन सौ रुपये की दिहाड़ी कर के बनवाया गया दो कमरे का मकान जब नदी में समा जाय तो कैसा लगता होगा? कैसा लगता होगा जब घर से जान बचा कर भागी किसी बहुरिया को याद आये कि सिन्होरा छूट गया? क्या क्या नहीं छीन लेती बाढ़!

बाढ़ का पानी कुछ नहीं चिन्हता! न मानुस जात, न माल मवेशी! जो मिले सबको डकार जाता है। गाय भैंस बकरी… घर, दुआर, बथान…

लोग फिर भाग रहे हैं। गाँव छोड़ कर, घर छोड़ कर… अम्मा की साड़ी उठाते हैं, बाबूजी की पगड़ी छूट जाती है। सीजन में बटोर कर रखा गया गेहूँ धरा रह जाता है, फ्रिज टीवी कूलर भी छूटता है, सोफा पलंग ड्रेसिंग भी… बस जान बच जाय किसी तरह…

बाढ़ के कारणों पर चर्चा कीजिये तो वह कभी खत्म नहीं होगी। पीढियां खत्म हो जाती हैं, पर आरोप प्रत्यारोप खत्म नहीं होते! वैसे अंदर की बात बस यही है कि इस लोकतंत्र में कोई सरकार नहीं चाहेगी कि बाढ़ न आये। बाढ़ माल छीलने का मौका लेकर आती है।

साभार:सर्वेश तिवारी श्रीमुख-(ये लेखक के अपने विचार हैं)
गोपालगंज, बिहार।

तस्वीरें- यहीं कहीं से…

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