Positive India:Sushobhit:
कंगना ‘घणी-बावरी’ हैं। वो किसी दुखती रग (Raw nerve) की तरह हैं- भला लगे या बुरा- उनकी अनदेखी करना कठिन है। बीते कुछ सालों में जिस मुँहफट अंदाज़ में वो अवतरित हुई हैं- अगर उनके अभिनय में कोई बात नहीं होती- तो दुनिया अभी तक उनका बोरिया-बिस्तर बँधवा चुकी होती। लेकिन वो दृश्य में बनी हुई हैं। एक Districts के रूप में उनकी माँग निरन्तर बनी रहेगी, और उन्हें नापसंद करने वाले भी टिकट ख़रीदकर उनकी फ़िल्में देखने जाते रहेंगे। अब तो वो मेम्बर ऑफ़ पार्लियामेंट भी बन गई हैं, और अभी और आगे जाएँगी। ट्रायम्फ़ ऑफ़ द टैलेंट- इसी को कहते हैं।
ग़रज़ ये कि अगर आपके काम में दम है तो दुनिया आपकी हर अदा को मन से- या मन मारकर ही सही- बर्दाश्त ज़रूर करती है।
कंगना(Kangana) के व्यक्तित्व में यह जो चकित- कभी-कभी स्तब्ध- कर देने वाला अनगढ़पन और पोलिटिकल-इनकरेक्टनेस है, उसका मूल उनकी आँचलिक पृष्ठभूमि में है। महानगर में व्यक्तित्व के जिन कोनों-कंगूरों या सींगों-नाख़ूनों को बाल्यावस्था में ही छाँट दिया जाता है, उन्हें अक्षुण्ण रखकर वो हिमाचल प्रदेश से पहले दिल्ली और फिर बम्बई पहुँचीं। अनुराग बासु की अभ्यस्त नज़रों ने उन्हें परख लिया। कंगना का चेहरा परम्परागत नायिकाओं जैसा नहीं था और उनके बाल उस समय घने-घुंघराले हुआ करते थे। लेकिन अनुराग को उनके व्यक्तित्व की रॉ-नेस पसंद आई होगी- और कुछ भाग्य का भी योगदान था- कि उन्हें गैंग्स्टर के लिए चुन लिया गया।
अपनी शुरुआती फ़िल्मों- गैंग्स्टर, लमहे, मेट्रो, राज़, काइट्स- आदि में कंगना को डार्क-कैरेक्टर्स मिले। क्या उनके व्यक्तित्व में ही कुछ वैसा था, जो उन्हें ऐसी भूमिकाएँ दी जाती थीं, या आरम्भ में कुछेक स्याह भूमिकाएँ करने के कारण उनकी छवि न्यूरोटिक क़िस्म की मान ली गई थी- ये किसको पता। उस समय दिए एक इंटरव्यू में कंगना ने कहा था- सबको लगता है कि मैं घर में बत्तियाँ बुझाकर, बाल बिखराए, गाफ़िल रहती हूँ, या वॉशरूम के बाथटब में मदहोश पड़ी रहती हूँ और नलका बहता रहता है- लेकिन ऐसा है नहीं।
शायद इस धारणा को झुठलाने के लिए ही उन्होंने तनूजा त्रिवेदी का कलरफ़ुल-कैरेक्टर निभाया। उस फ़िल्म में भावना की तीव्रता और आद्योपान्त सजल-प्रवाह है। फ़ैशन में कंगना शो-स्टॉपर थीं। दर्शकों ने पाया कि वो कंगना से अपनी नज़रें हटा नहीं पाते थे और इस बात को फ़िल्म-उद्योग ने ताड़ लिया। एक बार इंडस्ट्री को भनक लग जाए कि उनके पास एक मेजर-टैलेंट है, जिसे दर्शक बार-बार देखना चाहते हैं, तो फिर वो उसके पास अनुकूल कहानियों और बेहतर परियोजनाओं को लेकर पहुँचने में देर नहीं लगाती। यह सबके लिए विन-विन सिचुएशन होती है।
क्वीन ने कंगना को हरदिलअज़ीज़ बना दिया था। अलबत्ता क्वीन से कंगना ने स्ट्रॉन्ग-वुमन की छवि को मज़बूत किया, किंतु उसमें एक अभिनेत्री के रूप में उनके बेहतरीन दृश्य वो थे, जिनमें वे दुविधाग्रस्त दिखलाई देती थीं। कंगना ने उस फिल्म में अनेक विस्मयादिबोधक-क्षण रचे हैं। तनु-मनु द्वितीय में वो इससे भी आगे चली गईं। अगर आप उस फ़िल्म का घणी-बावरी गाना देखें तो पाएँगे कि मात्र कोई तीन मिनटों के उस गाने में उनके एक्सप्रेशंस विस्फोटक हैं। मालूम होता है, जैसे वह किरदार नर्वस-ब्रेकडाउन की कगार पर है। इस तरह की चीज़ें कंगना के ही बस की बात है।
उस फ़िल्म के पहले भाग में तनूजा त्रिवेदी की स्याह छवि प्रस्तुत की गई थी और दत्तो (कुसुम सांगवान की भूमिका में स्वयं कंगना) के चरित्र को फ्रेम-दर-फ्रेम उभारा गया था। अंत में आत्मबलिदान का गौरव भी दत्तो के हिस्से आया और वह दर्शकों की चहेती साबित हुई। अगर दत्तो की भूमिका किसी और अभिनेत्री को दी जाती तो अभिमानी कंगना यह फ़िल्म छोड़ देतीं। लेकिन वहाँ पर तनु का संघर्ष दत्तो से था। जीत कंगना के ही हिस्से आने वाली थी। सिद्ध हुआ कि कंगना का मुक़ाबला अब केवल स्वयं से ही है!
कई लोग सोचते होंगे कि कंगना जैसी हैं, वैसी क्यों हैं? वो इतनी बदतमीज़ और मुँहफट क्यों हैं? उन्हें इतना ग़ुस्सा क्यों आता है? जब वो आप की अदालत में आईं तो अपनी पैरवी करने का उनका अंदाज़ वैसा ही था, जैसे तनु-मनु द्वितीय के आरम्भिक दृश्य में तनूजा त्रिवेदी लंदन के मेंटल रीहैब सेंटर में मनु शर्मा की मलामत करती है। क्या वो सच बोल रही थीं? कौन जानता है, लेकिन वो अपने कंगना होने को रूपायित ज़रूर कर रही थीं।
जब तक कंगना सोशल मीडिया से दूर थीं, उनका व्यक्तित्व एक रहस्य के आवरण में छुपा था। किंतु ट्विटर और फ़ेसबुक पर सक्रिय होने के बाद उन्होंने बेधड़क- लगभग आत्मनाश की त्वरा से- स्वयं को व्यक्त किया। बहुधा वो सार्वजनिक-माध्यमों में रिवॉल्वर-रानी शैली की भाषा बोलते बरामद हुईं। उन्होंने अपने राजनैतिक-रुख़ को प्रकट करने में सामान्य-शिष्टाचार वाला संकोच भी नहीं बरता। असहज कर देने वाली सच्चाइयों को उन्होंने लगभग बेमुरौव्वत होकर उजागर किया। कंगना के पक्ष में अलबत्ता आप यह दलील दे सकते हैं कि जब फ़िल्म-उद्योग के दूसरे सितारे निर्द्वंद्व होकर एकपक्षीय राजनैतिक विचार व्यक्त कर सकते हैं तो अकेले कंगना पर ही पाबंदी क्यों लगाई जावे?
कंगना इधर निरंतर विवादों-चर्चाओं में रही हैं। ग़रज़ ये कि पंगा लेने में उन्होंने अपनी तरफ़ से कोई कोताही नहीं बरती और बर्र के अनेक छत्तों को जानबूझकर छेड़ा। तनु-मनु प्रथम में एक संवाद है। माधवन से कंगना कहती हैं- “शर्माजी, आप जैसे दिखते हैं, असल में वैसे हैं नहीं।” लेकिन यही बात कंगना के बारे में नहीं कही जा सकती। वो इतने सालों से परदे पर जैसी दिखलाई देती रही हैं, वैसी ही वो असल में नुमायाँ भी हुई हैं- अब यह अपने आपमें भली बात है या बुरी- इसका निर्णय करने वाले करते रहें।
हाल ही में उनके दो इंटरव्यू बहुत चर्चित हुए हैं। वे पोलिटिकली-करेक्ट नहीं हैं और बहुत सुशिक्षित नहीं हैं, पर उनकी एक सोच है और मैं कहूँगा कि वो उनकी अपनी सोच है। वो चाहे जैसी हों, नक़ली और फ़र्ज़ी नहीं हैं। यूपी के नेता ने हाल में कहा कि कंगना तो अभिनेत्री हैं, उनका निर्देशक कोई और है। कंगना ने मुँहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि मैं कठपुतली नहीं हूँ, मैं अपनी डायरेक्टर स्वयं हूँ। राजनीति में दुनिया में वो ऐसा व्यक्तित्व है, जिससे उनकी अपनी पार्टी के नेतागण दूसरों की तुलना में ज़्यादा ख़ौफ़ खाएँगे और उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचेंगे, पर लगता नहीं कि कंगना को कोई रोक सकता है। एक थप्पड़ तो हरगिज़ नहीं, जिसका कि लिबरल-कम्युनिटी ने बहुत बेशर्मी से जश्न मनाया था। कंगना के गाल पर तमाचे की छाप की तस्वीरें ख़ुशी-ख़ुशी साझा की थीं। मालूम होता है, कंगना की छाप इन पाखंडियों के अंतर्मन पर ज़्यादा पड़ी हुई है।
कोई कुछ भी कहे, कंगना मुझको तो अच्छी लगती हैं!
Writer:Sushobhit-(The views expressed solely belong to the writer only)