किसी लेखक के लिए किसी खूंटे में बंध कर रहना बिलकुल ज़रुरी नहीं
-दयानंद पांडेय की कलम से-
Positive India:Dayanand Pandey:
लेखकों में एक अजीब हीनता भर दी गई कि अगर आप कम्युनिस्ट नहीं तो लेखक नहीं । ऐसा बिलकुल नहीं है । यह गलत धारणा है । किसी लेखक के लिए किसी खूंटे में बंध कर रहना बिलकुल ज़रुरी नहीं है । अच्छा मनुष्य बनना ज़्यादा ज़रुरी है । दुनिया भर में बहुत सारे बड़े लेखक हुए हैं जो कम्युनिस्ट नहीं थे । टालस्टाय , शेक्सपियर , मार्खेज , रवींद्रनाथ टैगोर , शरतचंद्र , बंकिम , भारतेंदु हरिश्चंद्र , फ़िराक , निराला , महादेवी वर्मा , हजारी प्रसाद द्विवेदी , दिनकर , जैनेंद्र , अज्ञेय , धर्मवीर भारती , रघुवीर सहाय , मोहन राकेश , बच्चन , दुष्यंत कुमार , भगवती चरण वर्मा , नरेश मेहता , अमृतलाल नागर , रामदरश मिश्र , मनोहर श्याम जोशी जैसे हज़ारों-हज़ार लेखक कम्युनिस्ट नहीं थे । लेखकों में अब कम्युनिस्ट होना सिर्फ़ फैशन है , लेखन नहीं । कम्युनिस्ट होना अच्छी बात है । हर नौजवान शुरू-शुरू में कम्युनिस्ट होता है । कभी मैं भी था । हां , लेकिन कम्युनिस्ट हो कर एकपक्षीय , एजेंडाधारी , अराजक और विषैला होना बहुत बुरी बात है । सभी लोग इस तत्व से चिढ़ते हैं । उन की हिप्पोक्रेसी से चिढ़ते हैं । कम्युनिस्टों के अलोकप्रिय होने में यह एक बड़ा कारण है ।
अब के समय के तमाम कम्युनिस्ट लेखकों के लेखन की पड़ताल कर लीजिए , उन के यहां , नारा , पोस्टर , परचा , फतवा , गैंगबाजी , एन जी ओ , जातिवादी जहर आदि सब कुछ मिलेगा लेकिन लेखन नहीं । रचना नहीं । फिर इन को पढ़ता भी कौन है ? खुद ही लिखते हैं , खुद ही पढ़ते हैं । आने-जाने का एयर टिकट या ट्रेन का ए सी टिकट और बढ़िया होटल में दो दिन रहने की व्यवस्था कोई स्मगलर भी कर दे तो यह लेखक दौड़े हुए चले जाएंगे । जाते ही हैं । थोड़ी सी सुविधा पा कर सारी आइडियलाजी और क्रांति धूल-धूसरित हो जाती है।
हिप्पोक्रेसी की इंतिहा है यह ।
बनारसीदास चतुर्वेदी ने मधुकर के अप्रैल , 1945 अंक में लिखे एक लेख में लिखा है , भेड़चाल से हमें सख्त नफरत है, भेड़ें सदा एक सी ही होती हैं, चाहे वे हिटलर की हों, हजरत ईसा मसीह की हों, मार्क्स की हों या गांधी की ! स्वतंत्र- लेखकों से कोई यह नहीं कह सकता कि तुम अमुक वाद का प्रचार करो, साम्यवाद का या गांधीवाद का ! और यदि कोई ऐसा कहे तो यह उसकी धृष्टता ही होगी।
जब वह अपने ही कुतर्कों से हांफ-हांफ जाते हैं , तथ्य से मुठभेड़ नहीं कर पाते, कोई राह नहीं पाते निकल पाने की तो बड़े ठाट से एक मूर्ति बनाते हैं। फिर इस मूर्ति को ब्राह्मण नाम दे देते हैं । मूर्ति को स्थापित करते हैं । उस के चरण पखारते हैं , उस का आशीर्वाद लेते हैं । उन का रचनाकार खिल उठता है । फिर वह अचानक अमूर्त रूप से इस मूर्ति से लड़ने लगते हैं । उन की विजय पताका उन के आकाश में फहराने लगती है । वह सुख से भर जाते हैं । हां लेकिन उन की धरती उन से छूट जाती है , वह गगन बिहारी बन जाते हैं। उन का यही सुख उन्हें, उन की रचना को छल लेता है । लेकिन उन की आत्म मुग्धता उन्हें इस सच को समझने का अवकाश नहीं देती। उन की क्रांतिकारी छवि कब प्रतिक्रांतिकारी में तब्दील हो जाती है , यह वह जान ही नहीं पाते । और वह फिर से ब्राह्मण-ब्राह्मण का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते उल्टियां करने लगते हैं । लोग इसे उन की नई रचना समझ बिदकने लगते हैं । पर हमारे यह गगन बिहारी मित्र अपने आकाश से कुछ देख समझ नहीं पाते और वहीँ कुलांचे मारते हुए नई -नई किलकारियां मारते रहते हैं। धरती से , धरती के सच से वह मुक्त हो चुके हैं । उन्हें इस धरती से और इस के सच से क्या लेना और क्या देना भला ! अब उन का अपना आकाश है , आत्म मुग्धता का आकाश।
कम्युनिस्ट हो कर एकपक्षीय , एजेंडाधारी , अराजक और विषैला होना बहुत बुरी बात है । सभी लोग इस तत्व से चिढ़ते हैं । उन की हिप्पोक्रेसी से चिढ़ते हैं । कम्युनिस्टों के अलोकप्रिय होने में यह एक बड़ा कारण है । वामपंथियों में एक बात कामन है । वह है विचारधारा के प्रति कट्टरता। यह भी कि धार भले कुंद हो जाए पर लीक नहीं छोड़ेंगे । हां , वामपंथियों में लेकिन छुआछूत और गुरुर भी बहुत है । समस्या मार्क्सवाद में उतनी नहीं , जितनी मार्क्सवादियों में है । मार्क्सवादियों की किसिम-किसिम की दुकान में है । असल जड़ दुकानदारी ही है ।
साभार:दयानंद पांडेय-(ये लेखक के अपने विचार हैं)