Positive India:Kanak Tiwari:
बहती हवाएं, थिरकता पानी और मिट्टी की सोंधी गंध जिस कंठ में हो, उसे किशोर कुमार गांगुली कह सकते हैं। खंडवा में बसे केदारनाथ गांगुली के सबसे छोटे बेटे के जवान होने का वक्त आया। देश की सरहदें विभाजन से टूट गई थीं। मादरे-वतन का तिरंगा परचम इंकलाब का सूरज बनकर चमका था। तब मध्य वर्ग के नौजवान नये देश में अपनी किस्मत आजमाने बेताब थे। अन्दर आज़ादी, विद्रोह और कुछ कर गुजरने का जज़्बा खून पसीना एक करने की शक्ल अख्तियार कर रहा था। इस भीड़ में युवा किशोर भी एक इकाई थे।
धरती निमाड़ की, पानी नर्मदा का, हवा मालवा की कंठ की कोख में बैठ जाए तो नाम किशोर कुमार गांगुली होता है। उनके शिल्पी हाथ बम्बई के जरिए सारे भारत की जन-कलात्मक तस्वीर गढ़ते जा रहे थे। मझोले कद का नौजवान औसत नाकनक्श लिए सपने और ख्वाहिशें गठरी की तरह लादे चकाचौंध की दुनिया में पहुंचा। केवल बम्बई को मालूम था वह सप्तसुरों के सितार की झंकार लिए संगीत का मौसम बनकर छा जायेगा। किशोर कुमार की कहानी किस्मत नहीं कर्म के पसीने की है। इस कलाकार को पहले बर्खास्त कर दिया गया ।
किशोर आवाज की कशिश का औजार आत्मा में लिए अनुशासन की रस्स्यिां काटता रहा। रागों की शास्त्रीयता, वाद्ययंत्रों का आग्रह, कण्ठ के उतार चढ़ाव के आजमाए नुस्खे, परम्पराओं की अन्दर बहती नदियां भारतीय संगीत के अवयव हैं। किशोर कुमार ने अनुशासन की छाती पर चढ़कर नृत्य किया। रागों की आत्मा में डूबकर सुरों को किशोर ने लय में गाने मजबूर किया। वाद्ययंत्र उन्हें आवाज की भूल-भुलैया में ढूंढ़ते रहे। अनुशासनों से बचकर किशोर सीधे श्रोताओं के दिलों की गहराइयों में छुपते गये। हास्य अभिनय, युवा पीढ़ी के आक्रोश से उपजी फूहड़ और उच्श्रृंखल भंगिमाओं के प्रतीक किशोर ने उछलकूद भी की है। वे दीवार का उखड़ता हुआ पलस्तर थे। उसके भीतर भारतीय संगीत के पुरखों द्वारा छुपाया यह नायाब हीरा अपनी चमक बिखेरने बेताब था। इसकी आवाज की खनक में मध्य वर्ग का जेहाद था। किशोर के रहते क्रान्ति की कशिश मरी नहीं। उनके मर जाने के बाद वह सुगम संगीत की केन्द्रीय आवाज बनकर करोड़ों हिन्दुस्तानियों के लिए सीना तानकर चलने की बुनियादी पोथी बन गई है।
भाषा को इस बात का गौरव नहीं होना चाहिए कि गायक केवल उसके सहारे आत्मा और श्रोताओं से संवाद कर पाता है। किशोर कुमार शास्त्रीय मौसिकी के मुगल दरबार के रत्न नहीं, मध्यप्रदेश से दूसरे बैजूबावरा थे। उनकी प्रेयसी गौरी नहीं थी। अपनी मां की याद में बनाये गये घर गौरीकुंज में किशोर कुमार बिना ढूंढ़े ही मिल जाते हैं। यदि किशोर कुमार को एक नाम से ही जानने की मजबूरी हो। तो खुद को किशोर कुमार नहीं बल्कि ‘‘खण्डवा-वाला‘‘ कहते। हो सकता है किशोर दा का आकलन अतिशयोक्ति में हो रहा हो पर किसी भी महान व्यक्ति को दी गई श्रद्धांजलि तवारीख में अतिशयोक्ति के अलावा क्या है?
किशोर कुमार दिखावे के लिए बड़े आदमी बने ही नहीं। लगता है किशोर कुमार गायन को अभिव्यक्ति के अलावा सोचते रहने का माध्यम भी बनाते थे। आवाज की दुनिया के जिन बंगाली बाजीगरों ने पश्चिम की तरफ भागती दुनिया को पूरब की तरफ मोड़ने की कोशिश की, उन एस.डी. बर्मन, आर.सी. बोराल, सलिल चौधरी, पंकज मलिक, हेमन्त कुमार वगैरह से यदि एक साथ पूछा जाय तो उन्हें शायद यही कहना होगा कि गायकी का अंदाज कोई देखे तो कलकत्तावालों में नहीं सबसे बढ़कर खण्डवावाले में।
हास्य अभिनय ही नहीं, युवा आक्रोश से उपजी फूहड़ और उच्श्रृंखल भंगिमाओं के प्रतीक तक बनकर किशोर ने उछलकूद की। वह तो दीवार का उखड़ता पलस्तर था। उसके अंदर भारतीय संगीत के पुरखों द्वारा छुपाया नायाब हीरा अपनी चमक बिखेरने बेताब था। इस आवाज की खनक में मध्य वर्ग का जेहाद बोलता था। किशोर के रहते युवा क्रान्ति की कशिश मरी नहीं। उनके मर जाने के बाद सुगम संगीत की केन्द्रीय आवाज करोड़ों हिन्दुस्तानियों के लिए सीना तानकर चलने की बुनियादी पोथी बन गई है।
किशोर कुमार गाते थे तो शब्द, अर्थ छोड़कर ध्वनि की चादर ओढ़कर वैसे ही बने रहते थे जैसे कबीर की चादर उनके जीने के बाद जैसी की तैसी धरी है। किशोर कुमार की हड़बड़ी को नजरअंदाज करना पहाड़ी नदी के इठलाने, कूदते मृगशावकों और बच्चों की किलकारी की अनदेखी करना है। उनकी नौजवान व्यग्रता, परिवार के लिए पेट की रोटी कमाने के लिये उपेक्षा को शिष्टता के थैले में डालकर कहीं बगल निकल जाना, किशोर कुमार ही नहीं हर युग के नौजवानों की बानगी है। जिस तरह गालिब का अन्दाजे बयां और है वैसे ही किशोर कुमार का अन्दाजे मौसिकी कुछ और है। लोग उनकी याद में गमगीन होकर वही जुमला कस देते हैं। किशोर दा वक्त से पहले चले गये। दरअसल किशोर कुमार वक्त के बहुत पहले पैदा हो गये थे। संगीत की सरहदों की राष्ट्रीयता और फार्मूलों को गड्डमगड्ड करती दुनिया बाइसवीं सदी के मुहाने पर खड़ी होगी। तब किशोर कुमार का नाम प्रयोगधर्मी, प्रवर्तक और परेशान दिमाग व्याकुल कलाकार की तरह क्षितिज पर होगा। किशोर दा को सुनना आदमी के अनुभव संसार को आंखों का आंसू बनाकर उनमें सुखा लेना है।
किशोर दा के लिए शब्द केवल अनुशासन नहीं थे। किशोर कुमार शास्त्रीय मौसिकी के मुगलिया दरबार के तानसेन नहीं, मध्यप्रदेश के बैजूबावरा थे। मां की याद में बनाये गये खण्डहर होते गौरीकुंज में किशोर कुमार आज भी बिना ढूंढ़े मिल जाते हैं। वाद्ययंत्रों को गुरूर हुआ कि उनसे आरोह अवरोह उधार लिये बिना कण्ठ की स्वायत्तता नहीं होती। तब इस गायक ने आर्केस्ट्रा की सिम्फनी के ऊपर खड़े होकर अनोखे अन्दाज में बिंदास गायकी को शऊर दिए। वही किशोर कुमार होने का अर्थ है।
किशोर कुमार को एक नाम से जानने की मजबूरी हो तो खुद को किशोर नहीं बल्कि ‘खण्डवा-वाला‘ कहते। ‘एक भारतीय आत्मा‘ राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी ने खण्डवा में ‘कर्मवीर‘ क्रांतिकारी अखबार के जरिए युवा पीढ़ी का परिष्कार किया। किशोर कुमार ने ‘भारतीय आत्मा‘ और ‘कर्मवीर‘ बनने में बाजी मार ली। इसकी ताईद बाल सखा रमणीक लाल मेहता तथा फतेह मुहम्मद और गुरु अक्षय कुमार जैन करते रहे हैं।
किशोर कुमार दिखावे के लिए बड़े आदमी भी नहीं बने। कैमरा बताता है हमारा पाजिटिव चिकना चुपड़ा चेहरा असलियत के निगेटिव में कितना काला और बदरंग होता है। किशोर कुमार के निगेटिव तक के सौन्दर्य से हमें प्यार है। उनके पाजिटिव चेहरे की रश्मियां उनके कण्ठ से फूटीं। वे संगीत की नर्मदा और उसकी सहेलियां बनकर खण्डवा से बम्बई पहुंचीं। वक्त को भूगोल की इस सांस्कृतिक यात्रा पर आश्चर्य हुआ। लगता है किशोर गायन को अभिव्यक्ति के अलावा सोचने का माध्यम भी बनाते थे। इस लिहाज से वे हिजमास्टर्स वायस नहीं हैं, जिसने उन्हें अमर बनाया। आवाज की दुनिया के बांग्ला बाजीगरों ने पश्चिम की भागती दुनिया को पूरब की तरफ मोड़ने की कोशिश की। एस.डी. बर्मन, आर.सी. बोराल, अनिल विश्वास ,सलिल चौधरी, पंकज मलिक, हेमन्त कुमार वगैरह से एक साथ पूछा जाता। शायद यही कहते गायकी का अंदाज कलकत्ता वालों में नहीं सबसे बढ़कर खण्डवावाले में है।
साभार:कनक तिवारी