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खुद से जिरह:कनक तिवारी

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Positive India:Kanak Tiwari:
कल तक जीऊंगा तो 79 का हो जाऊंगा। मेरे जन्म के सभी गवाह अब मृत्यु के साथ हैं। मां मेरी पूरी दुनिया बनकर मुझे साढ़े तीन बरस में छोड़ गईं। हीनता, कुंठा, ईष्या और घृणा में वे सब भी आ जाते हैं जिनकी माताओं ने उन्हें असमय नहीं छोड़ा। मेरे लिए जिन्दगी मरने से बचने का बहाना ही तो है। मौत जिन्दगी को उसी तरह खिलाती है जैसे शेर बछड़े को या बिल्ली चूहे को। इन्सान को बछड़े या चूहे जैसी भूमिका का चुनाव करना पड़ता है। पहला पाठ पिता ने पढ़ाया था। कक्षा में पहला नहीं आने पर पिटाई की थी। उफ करने पर फिर मार पड़ती। प्रथम आने पर शाबासी मिलती ही नहीं थी। मेरे पिता के सामने मुझे परशुराम और दुर्वासा सदैव निरीह लगे। मेरे एक जन्मदिन पिता चले गए।

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आत्मप्रचार, लालसा और महत्वाकांक्षा से निर्लिप्त गुरु कन्हैयालाल तिवारी ने काॅपी के पन्ने पर मेरे भविष्य की इबारत लिखी। उसमें शिलालेख का चरित्र है। पितातुल्य प्रोफेसर प्रेमनारायण श्रीवास्तव में प्रेम, नारायण, श्री और वास्तव की अलग अलग छटाएं थीं। दादी तथा मुरमुरे, चने और लाई बेचने वाली अस्पृश्य धाय मां रामबती की करुणा और संरक्षण ने मन की देह पर लेप किया। नहीं तो कौन ससुरा जी पाता। बड़ी बहन का प्रेम आगोश में ऊष्मा भरता। विवाह होने के बाद ससुराल चली गईं। मैं अकेला हो गया।

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पत्नी बनी से शादी नहीं होती तो बरबादी कुलक्षणा की तरह आई होती। मन, आत्मा, चित्त और विचार तक पर नियंत्रण रखकर पति को अनुकूल बनाने का नुस्खा होमसाइंस काॅलेज जबलपुर में सिखाया जाता है। मेहरगुलम्मा पति मुझसे प्रेरणा लेते हैं। काॅलेज में जवाहरलाल के सम्मोहन में आया था। धोती, कुर्ता, जैकेट, अधबनी दाढ़ी, खिचड़ी होते बाल वाले अकुशल वक्ता डाॅ. राममनोहर लोहिया ने नेहरू की नफासत पर पोचारा फेर दिया। वे आत्मा में पैठे हैं। असाधारण प्राचार्य उमादास मुखर्जी की छबि का असर सिक्के पर टकसाल की छाप है।

दोस्त नहीं होते तो आत्महत्या नहीं रुकती। आज उनमें से अस्सी नब्बे प्रतिशत धोखा दे गए। विलास, शिवकुमार, श्यामसुंदर, नरेन्द्र, शांतिलाल, प्रफुल्ल, सनत, रामानुज, गुणवंत, व्यासनारायण, रविशंकर, कुलराज, बलदाऊ, हरिसेवक, जगदीश और न जाने कितने। मन से हटते हैं। फिर आंसू भरी आंखों में गड़ने लगते हैं। आंखों से उन्हें टपकाता हूं। फिर मन में घुस जाते हैं। जवाहर, हेमेन्द्र, अशोक, विजय, विनोद, मनोहर, नन्दू, विट्ठल, रामनारायण, अरुण, द्वारिका, फीरोज, संत वगैरह तो ठीक से मिलजुल भी नहीं पाते। इसका पैर टूटा है। उसका बाइपास। उसके पास गाड़ी नहीं। उसकी जीवनसाथी नहीं। वह बच्चों पर निर्भर। उसे दोस्तों से बेरुखी। वह अतीत भूल रहा है। हमारे जमाने में गर्लफ्रेण्ड नहीं होती थीं। रायपुर की हलवाई लाइन में बनारस वाले दुबे बंधु आत्ममुग्ध होकर हमारे चुटकुले सुनते। हम मिठाइयां चुराकर खाते। भागवत पंडित मेस का ठेकेदार नहीं होता तो सेहत की बरबादी का मुकदमा दूसरे किसी पर करना पड़ता। कसीमुद्दीन एंड सन्स और पुस्तक प्रतिष्ठान गफलत में नहीं होते तो सनत किताबें चुराकर हमारी पढ़ाई का जतन कैसे करता।

बम्बई का कपड़े का व्यापारी मामा के घर बेमेतरा में अचानक मिला था। भृगुसंहिता सिद्ध थी। बोला जिस दिन दूसरी संतान हमशक्ल बिटिया का मुंह देखोगे। उसी वक्त नौकरी छूट जाएगी। तब ही वकील बन पाओगे। पहली संतान अर्थात पुत्र सोच पर हावी होता रहता है। बिटिया पूरे व्यक्तित्व को नागपाश की तरह कस लेती है। समझदार बहू संतुलित है। पता नहीं था पौत्र पुत्र से अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है। अंतस मां के गर्भ से नहीं बाबा के अंतस से पैदा हुआ है।

वाचाल, मुंहफट, असभ्य, असमझौतावादी, झगड़ालू और गुस्सैल मनुष्य को कुछ लोग प्रतिभाशाली समझने की गलती कर बैठते हैं। हम महात्मा तो हैं नहीं जो गलती स्वीकारें। गांधी 125 बरस का होकर भोपाल में मिला। मैंने उसे मोहरा बनाकर आयोजनों में इस्तेमाल किया। लोग मुझे गांधीवादी कहने लगे। मैं राष्ट्रपिता से माफी मांगता हूं। लोहिया को पढ़ते पहली बार लगा दिमाग नाम की चीज भी होती है। अंतर्कथाएं लिखीं। शऊर रघुवीर सहाय से मिला। गांधी के प्रवक्ता धर्मपाल मिल गए। जेहन को छोड़कर जाते ही नहीं। उनकी सिफारिश पर निर्मल वर्मा से मिलता रहा। उनकी यादों को भी लादे रहना पड़ा। प्रभाश जोशी की मित्रता अकुलाती रहती है। ऋषि चिंतक सच्चिदानन्द सिन्हा से मुलाकात देश के तमाम गालबजाऊ विचारकों के मुकाबले एक छात्र की विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलने की तरह है। स्फुरण राजीव गांधी, नरेश मेहता और स्वामी आत्मानन्द की यादों का भी है।

अमरकंटक के रास्ते लमनी में चीटियों के प्रयत्नों की तरह बैगा आदिवासियों की सेवा करते प्रभुदयाल खेरा दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर इतिहास रच रहे हैं। राजनीति के सरमाएदारों से ज्यादा तो काॅलेज के चौकीदार रामप्रसाद की याद आती है। यादध्यानी लक्ष्मण भी दुर्ग अधिवक्ता परिषद में चपरासी था। बाबई में अधेड़ उम्र के मोटर मेकेनिक ने अगस्त की भयानक बरसाती रात में पूरे परिवार को गर्म खाना खिला कर ही कार को सुधारकर दम लिया। रामदयाल अग्रवाल ने हैदराबाद के चारमीनार इलाके में छोटी सी दूकान में हजारों रुपयों का मोती का हार भरोसे पर दे दिया कि प्रवास से लौटकर हम रुपये भिजवा देंगे। मैंने वकालत के घमंड में कहा रुपए नहीं भेजेंगे तो क्या कर लोगे। उसने करोड़ों रुपयों का जवाब दिया। ‘वकील साहब, मोती का व्यापारी हूं। मोती का व्यापारी क्या जो आदमी नहीं पहचाने।‘ कमबख्त कांग्रेसी नेताओं ने ऐसा क्यों नहीं कहा। कब का सांसद बन सकता था। संपादक हिमांशु द्विवेदी ने जाने क्यों मुझ गैरदक्षिणपंथी को ‘हरिभूमि‘ के काॅलम के लायक समझा। सहयोगी ब्रह्मवीर सिंह की आत्मीयता और अदब में ब्रम्हलीन होना पड़ता है। देवकी बुआ मेरे लिए कहती थीं शुक्रवार को चोर लड़ाका पैदा होते हैं।
साभार:कनक तिवारी

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